किसी गुमनाम से एक शहर में पैदा हुए थे हम
नहीं है याद पर कोई अशुभ सा ही महीना था,
रजाई की जगह ओढ़ी पुआलों की भभक हमने
विरासत में मिला हमको, हमारा ही पसीना था।
यह पंक्तियां हैं विख्यात कवि स्व. रामावतार त्यागी की।
यह भी एक तरीका है अपने बारे में बात करने का, लेकिन आज लगता है कि नाम वाले शहर में पैदा हुए लोग शायद ज्यादा अकेलापन महसूस करते हैं। शायद इसीलिए आजकल फेसबुक, ट्विटर आदि ज्यादा लोकप्रिय बल्कि लोगों के लिए अनिवार्य से हो गए हैं।
कभी मैंने भी कुछ ऐसा लिखा था –
लिए चौथ का अपशकुनी चंदा रात
जाने हम पर कितने और ज़ुल्म ढ़ाएगी,
कहने को इतना है, हर गूंगी मूरत पर
चुप रहकर सुनें अगर, उम्र बीत जाएगी।
बस ऐसा हुआ, कि पिछले दिनों फेसबुक पर मेरे एक कवि मित्र ने, मेरे एक पुराने गीत के माध्यम से मुझे याद किया।
अचानक खयाल आया कि अपनी कहानी के बहाने, अपने समय की बात की जाए।
वैसे मैं काफी आलसी इंसान हूँ, मैं इस काम को आगे बढ़ाता जाऊं, यह मेरे मित्रों की रुचि और प्रतिक्रिया पर निर्भर होगा, मैं कोशिश करूंगा कि अपनी इस यात्रा में, अपनी कुछ रचनाओं को भी साझा करता चलूं। इस बहाने कुछ कविताएं भी डिजिटल प्रारूप में सुरक्षित हो जाएंगी।
एक रचना आज यहाँ साझा कर रहा हूँ, जिसको ब्लॉग का शीर्षक बनाया गया है।
गीत
यहाँ वहाँ चिपक गए बादल के टुकड़े
धुनिए के छप्पर सा आसमान हो गया।
मुक्त नभ में, मुक्त खग ने प्रेम गीत बांचे
थक गए निहारते नयन,
चिड़ियाघर में मोर नहीं नाचे,
छंदों में अनुशासित
मुक्त-गान खो गया॥
क्षितिजों पर लाली,
सिर पर काला आसमान
चिकनी-चुपड़ी, गतिमय
कारों की आन-बान,
पांवों पर चलने के
छींट-छींट विधि-विधान,
उमड-घुमड़ मेघ
सिर्फ कीच भर बिलो गया।
धुनिए के छप्पर सा आसमान हो गया॥
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