एक पुराना दुख

इस शहर में वो कोई बारात हो या वारदात

अब किसी भी बात पर खुलती नहीं हैं खिड़कियां । (दुश्यंत कुमार)

लेकिन ये ब्लॉग लिखने का उद्देश्य तो खिड़कियों को खोलने का प्रयास करना ही है।

एक पुराना अनुभव साझा कर रहा हूँ, उससे पहले ये पंक्तियां याद आ रही हैं-

एक पुराने दुख ने पूछा क्या तुम अभी वहीं रहते हो

उत्तर दिया चले मत आना, मैंने वो घर बदल लिया है। (शिशुपाल सिन्ह ‘निर्धन’)

अब वह घटना-

कभी-कभी इंसान को यह सनक लगती है कि मैं खिड़कियां खोलूंगा। ऐसा मेरे साथ हुआ था 90 के दशक में, यह मन में बहुत बार आया कि अखबार में नियमित कॉलम लिखकर स्थितियों पर अपनी भड़ास निकाली जाए, प्रतिक्रिया के रास्ते अपनी भूमिका का निर्वाह किया जाए। लेकिन इसके लिए पत्रकारिता की पृष्ठभूमि और उससे भी अधिक किसी अखबार के दफ्तर में प्रभावी संपर्क की ज़रूरत है। प्रभावी इसलिए कि पत्रकार दोस्त तो कुछ थे, लेकिन वे ऐसा निर्णय लेने की स्थिति में नहीं थे।

मैंने विचार मंथन करके 3 महत्वपूर्ण विषयों पर लेख लिखे और अपने इन लेखों पर मैं स्वयं काफी मुग्ध या संतुष्ट तो था ही। इन लेखों के बारे में यहाँ संक्षेप में बता दूं। पहला लेख था-


  • भारतीय रेल

इस लेख में  मैंने अपने उस समय के अनुभवों के आधार पर ट्रेन के कंडक्टरों और कुलियों की अनैतिक  गतिविधियों के बारे में विस्तार से लिखा था । एक गतिविधि, शायद वो अब भी होती हो, यह थी कि जनरल बोगी पर कुली पूरी तरह कब्ज़ा कर लेते हैं, उस पर मिलिट्री या कुछ और लिखकर और फिर पैसे लेकर, सिविलियन को मिलिट्री मैन बनाते हैं। इसमें एक दृश्य मैंने लिखा था कि यार्ड से गाड़ी आती है, तब जनरल बोगी में सभी जगह कुली नीचे की दोनों बर्थ पर पर रखकर खड़े हो जाते हैं, और सीट एलॉटमेंट की इस महान प्रक्रिया को अंजाम देते हैं। यह देखकर बरबस यह गाना याद आ जाता है-

‘कितने बाज़ू, कितने सर, सुन ले दुश्मन ध्यान से ….’

इस लेख की अंतिम लाइन थी- कहते हैं कि इस देश को भगवान ही चला रहा है, तो फिर रेल कौन चला रहा है?

दूसरा लेख भारतीय प्रशासनिक तंत्र के बारे में था, इसमें मैंने इस पर बल दिया था कि हमारा लोकतांत्रिक प्रशासन तंत्र भारत के जन साधारण की सेवा के लिए है, लेकिन सच्चाई यह है कि आम नागरिक इन विशाल सरकारी  भवनों के पास जाने में भी डरता है, थाने की तो बात ही क्या! जबकि अपराधी, स्मगलर आदि उच्च पदों पर बैठे हुए अधिकारियों और जन-प्रतिनिधियों से इस तरह परिचित होते हैं कि वे उनको रिसीव करने सचिवालय के गेट पर आ जाते हैं या किसी को भेज देते हैं।

शायद अब थोड़ा बहुत फर्क पड़ा हो, लेकिन बहुत कुछ बदलना ज़रूरी है।

तीसरा लेख था सतर्कता का तर्क, इस लेख में मैंने अपने अनुभव के आधार पर यह लिखा था कि सरकारी कार्यालयों में जो विजिलेंस विभाग कार्य करते हैं, उनसे गलत काम करने वाले अधिकारी नहीं डरते क्योंकि वो तो अतिरिक्त रूप से सतर्क रहते हैं, ईमानदारी से काम करने वाले लोग ज्यादा डरते हैं। क्योंकि एक मामले में मैंने देखा कि फर्नीचर की खरीद में कहीं कारीगर ने कहीं भी, ज्यादा रंदा चला दिया तो वह किसी अधिकारी की किस्मत छील गया।

इतना सब आपने पढ़ लिया है, मैं आपके धैर्य की प्रशंसा करता हूँ।

आप सोच रहे होंगे कि मैंने 90 के दशक में कुछ लिखा, तो आज आपको क्यों बता रहा हूँ?

असल मेरे एक नज़दीकी मित्र सुशील कुमार सिंह, जो मेरे लिए शीलू हैं, वरिष्ठ पत्रकार हैं, उस समय वो जनसत्ता में थे, उनके माध्यम से मैंने ये तीनों लेख, जनसत्ता में उस सज्जन को भिजवाए जो लेखों का प्रकाशन देखते थे, काफी नाम था उनका, पहले दिनमान में भी रह चुके थे- जवाहर लाल कौल, वैसे मैं उनसे व्यक्तिगत रूप से आज तक नहीं मिला हूँ। सुशील ने बताया कि लेख उन्होने रख लिए हैं और कहा है कि और भी लेख भिजवाएं।

मैं उस समय एनटीपीसी विंध्याचल, मध्य प्रदेश में तैनात था, दिल्ली कम ही आना होता था, अगली बार दिल्ली आने पर पता किया तो कौल जी ने कहलवाया कि वो लेख तो खो गए हैं, और भिजवा दें। इस पर मुझे कुछ संदेह हुआ।

मैंने उसके बाद दिल्ली पब्लिक लायब्रेरी में जनसत्ता के पुराने अंक खंगाले तो मुझे ‘भारतीय रेल’ लेख तो श्रीमान जवाहर लाल कौल जी के नाम से छपा हुआ मिल गया, स्वाभाविक है कि बाकी दो लेखों के साथ भी ऐसा ही हुआ होगा।

शायद इसे ही कहते हैं- लाखों में बिकने लगे, दो कौड़ी के लोग! यह बात बहुत समय से दिमाग में अटकी थी सो आज कह दी, कहीं तक तो पहुंचेगी।

अंत में मेरे प्रिय गायक मुकेश जी के गीत की पंक्तियां याद आ रही हैं-

आसमां पे है खुदा और जमीं पे हम

आजकल वो इस तरफ देखता है कम।

किसको भेजे वो यहाँ खाक छानने

इस तमाम भीड़ का हाल जानने,

आदमी हैं अनगिनत, देवता हैं कम॥  

अपनी जीवन यात्रा पर क्रमवार आपको ले चलूंगा, मुझे पूरी उम्मीद है, आपको आनंद आएगा।

 

श्रीकृष्ण शर्मा

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