मोहल्ला मेरा

अब थोड़ा समय उस मोहल्ले को भी दे दें, जो लगभग 25 वर्ष तक मेरा ठिकाना था। जैसा मैंने अपने पिछले ब्लॉग में लिखा था, दरियागंज छोड़कर हम भोलानाथ नगर, शाहदरा में जाकर बसे और वहाँ पर पहली कक्षा से मेरी पढ़ाई शुरू हुई। भोलानाथ नगर आने का एक कारण यह भी था कि मेरे मामा के बेटे वहाँ रहते थे, वकील साहब! इस प्रकार मेरी मां यहाँ आकर अपने मायके के निकट आ गई थी।

जैसे हम अपनी भाषा को मातृभाषा कहते हैं, क्योंकि मां से सीखते हैं, उसी तरह आस-पड़ौस की पहचान भी हमें मां के द्वारा दी गई शब्दावली में ही होती है। तो हमारे मोहल्ले में हमारे बगल का मकान डाकखाने वालों का था, उसके बाद था वकील साहब का मकान, मेरी मां जिनकी और उनके बहाने पूरे मोहल्ले की बुआ थीं। उसके बाद एक प्लॉट खाली था उस समय, उसके बाद वाले मकान में पंजाब के एक सज्जन थे, जो मां की भाषा में पंजाबी नाम से ही पहचाने जाते थे। हमारे सामने एक बुज़ुर्ग रहते थे, वे मुल्तान से थे। हम उनको मुल्तानी बाबाजी के नाम से जानते थे। उनका ज्योतिष आदि में भी दखल था। उनके परिवार में उनकी पत्नी और आधुनिक बेटियां भी थीं। हर मकान के सामने का भाग एक गली में आता था और पिछला भाग दूसरी गली में। ये मुल्तानी बाबाजी हमारी तरफ घर से निकलते थे और उनका परिवार दूसरी गली से ही घर में आता-जाता था।

उससे अगले घर में एक चबूतरा भी था और उस घर की मालकिन को हमारी मां ने नाम दिया था, चौंतरे (चबूतरे) वाली। चौंतरे वाली का बेटा इंजीयरिंग की पढ़ाई कर रहा था। वह जवान था, देवानंद जैसे बाल रखता था और उसके पास पटरियों पर दौड़ने वाली ट्रेन थी, वैसी मैंने बाद में नहीं देखी, वैसे तो बच्चों के खिलौनों में वह आती ही है। उनके घर में समृद्धि की अच्छी खासी झलक मिलती थी।

एक बात और याद आ रही है, हमारे ही एक रिश्तेदार हैं, जो सिविल इंजीनियर थे, काफी बड़ा बंगला था उनका, एक बड़े से ड्राइंग रूम में बड़ी सी डाइनिंग टेबल और उस पर एक बड़ी सी टोकरी में ढ़ेर सारे फल, वह दृश्य काफी समय तक मन में अटका रहता था। क्योंकि उस समय तक मेरे लिए यह दृश्य सामान्य नहीं था।

अपने घर के बारे में बता दूं। शायद 20’X10’ का एक कमरा और एक छोटी सी रसोई थी, किराया था 16 रुपया प्रतिमाह। इस घर में माता-पिता और हम चार लोग, दो बहन, दो भाई रहते थे। बिजली सभी घरों में थी, लेकिन हमने नहीं ली थी। एक लालटेन थी हमारे घर में, जो या तो रसोई में इस्तेमाल होती थी या कमरे में, कमरे के थोड़े से हिस्से में ही लालटेन से रोशनी हो पाती थी। इस लालटेन की रोशनी में ही मैंने कक्षा 1 से 12वीं तक की पढ़ाई की थी।  

मेरे पिता जब घर में होते थे, तब शाम के बाद एक ही पहचान होती थी कि घर के उस कोने से उनकी सुलगती बीड़ी चमकती रहती थी। घर पर रहते हुए उनकी कोशिश रहती थी कि मैं उनके साथ ही खाना खाऊं। उनके दांत निकल चुके थे, रोटी को कुचलकर खाते थे। होता यह था कि सब्जी में कुचली हुई रोटी का कुछ भाग रह जाता था, मुझे खाने में थोड़ा खराब लगता था। ऐसे ही एक बार हम खा रहे थे, वो बोले कि अचार दे दो। अचार का मर्तबान खिड़की के ऊपर बने एक आले में रखा था, मैं खिड़की पर चढ़ा और वहीं चढ़ा रह गया, वो समझ गए, बोले तुमको मेरे साथ नहीं खाना चाहते तो नहीं खाओ, मुझे अचार तो दे दो। मुझे बड़ा खराब लगा कि मैं उनके प्रेम को पचा नहीं पा रहा था।

मकान मालकिन थीं प्रेम, एक विधवा महिला, उनकी छत पर जाकर सड़क का दृश्य दिखाई देता था। जब कोई ज़ुलूस निकलता या होली के दिन हुड़दंगियों की टोलियों का नज़ारा भी हम वहाँ से देखते थे। एक बार का दृश्य आज तक नहीं भूल पाया हूँ, वहाँ कुछ गैंग भी स्थानीय रूप से चलते थे, एक बार दो गैंग्स के बीच भिडंत हो गई, मुख्य सड़क पर चल रही इस भिड़ंत का नज़ारा भी हमने छत से देखा, लोग कोका कोला की बोतलों को हिलाकर इस प्रकार फेंकते थे कि विपक्षी के सिर में टकराकर वह फट जाए, उस दिन उन लोगों को लहूलुहान देखकर लगा कि उनमें से कुछ तो निपट ही जाएंगे, लेकिन वो बाद में फिर घूमते-फिरते नज़र आए, लगा कि यही तो इनके दीर्घ-जीवन का राज़ है।

दो-तीन गलियों का मोहल्ला था हमारा, मैंने कुछ ही घरों के बारे में बताया यहाँ, एक घर का ज़िक्र और कर दूं, जैसे मेरी मां मुहल्ले की बुआ थीं, वैसे ही पिछ्ली गली के आखिरी सिरे पर जो बुज़ुर्ग महिला रहती थीं वे मोटी बुआ कहलाती थीं। वे हमारी दूर की रिश्तेदार थीं। उनके एक भतीजे मुंबई में इतिहास पर आधारित फिल्में बनाते थे। पृथ्वीराज चौहान, हमीर हठ आदि, कुछ फिल्में चलीं बाद में कुछ नहीं चलीं उनकी हालत खराब थी, तब बनाई फिल्म- जय संतोषी मां, और वे फिर से मालामाल हो गए। एक बार उनकी ही किसी फिल्म की शूटिंग के लिए कलाकार आए हुए थे, तब अपने बचपन के दिनों में ही मैंने भगवान दादा से हाथ मिलाया था।  

हमारे सामने वाले मुल्तानी बाबाजी, गर्मियों में बाहर गली में ही चारपाई बिछाकर सो जाते थे, हम ऊपर छत पर सोते थे, जब तक कि सुबह के समय वानर सेना वहाँ न आ जाए।

एक रोज़ सामने वाले बाबाजी गली में सोये थे, तभी गली के एक शराबी कैरेक्टर वहाँ आए, सब जगह ऐसे लोग होते हैं जिनका पीना जग-जाहिर होता है। उन्होंने बाबाजी को नमस्ते किया, बाबाजी ने उनके नमस्ते का जवाब दिया, वो बाबाजी के पास बैठ गए और तेज़ आवाज़ में मोहल्ले के कुछ लोगों की बुराई करने लगे, वो ऐसा है, उसने ऐसा किया। बाबाजी उनको समझाते रहे कि ऐसी बातें मुझसे मत करो, वो बोले क्यों नहीं करूं, मैं आपको जानता हूँ, आप मुझे जानते हैं, मैंने आपको नमस्ते किया आपने जवाब दिया, मैं तो बोलूंगा और वो  बोलते चले गए, मैं जानता हूँ कि मेरे बोलने की भी सीमाएं होनी चाहिएं। इसलिए आज की बात यहीं समाप्त करुंगा, बातें तो बहुत करनी हैं आगे भी।

नमस्कार।

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