अब स्कूल के बारे में बात कर लें। कक्षा 1 से 5 तक गौशाला वाले सनातन धर्म स्कूल के बारे में तो बताने को कुछ नहीं है। बाबूराम स्कूल के बारे में ही बात करूंगा जहाँ मेंने कक्षा 6 से 11 तक की पढ़ाई की थी।
कुछ चित्र जो मस्तिष्क में आते हैं, वे धीरे-धीरे शेयर करना चाहूंगा।
काफी लंबे-चौड़े क्षेत्र में फैला था हमारा स्कूल, उस समय तक सिंगल स्टोरी ही था, काफी बाद में देखा कि दो-तीन मंजिला भवन बन गया है। कक्षाओं के लिए इस्तेमाल होने वाले क्षेत्र के पीछे, उससे 2-3 गुना बड़ा मैदान था, जहाँ खेलकूद के अलावा सुबह की प्रार्थना आदि होती थीं। कक्षाओं के पीछे एक छोटा सा मंच था, जहाँ से मैदान में होने वाली सुबह की प्रार्थना सभा और अन्य सांस्कृतिक गतिविधियों का संचालन भी होता था।
मुझे कभी उस स्कूल के प्रिंसिपल का नाम याद नहीं रहा, लेकिन हिंदी के एक अध्यापक थे- मनोहर लाल जी, कुर्ता-पैजामा और नेहरू जैकेट पहनते थे, टोपी लगा लें तो काफी हद तक नेहरू जी जैसे ही लगें। गुलाब का फूल भी वो अक्सर लगा लेते थे। स्कूल का वह मंच, उनके बिना अधूरा लगता था।
स्कूल में राष्ट्रीय दिवसों आदि के अवसर पर मनोहर लाल जी की विशेष भूमिका होती थी और देशभक्ति के जिस प्रकार के गीत वहाँ बजते थे, वे अलग वातावरण तैयार करते थे। मुझे याद है चीन से हुए युद्ध के बाद मैं उस स्कूल में रहते हुए एकमात्र बार मंच पर चढ़ा था और मैंने यह कविता मंच से पढ़ी थी, जो उस समय अखबार में छपी थी, मुझे नहीं मालूम कि किसकी लिखी हुई थी-
घबरा जाना नहीं दोस्तों, छोटी-मोटी हारों से
राष्ट्र हमारा जूझ रहा है, तलवारों की धारों से।
टिड्डी दल ने कहो आज तक, कभी सूर्य को ढांपा है,
तिनके पर बैठे चींटे ने, क्या समुद्र को मापा है।
दाल गलेगी नहीं तुम्हारी, कह दो यह गद्दारों से
राष्ट्र हमारा ………
बस सबसे बड़ी उपलब्धि यही थी कि मैं यह छोटी सी कविता, जोश के साथ पूरी पढ़कर, सही-सलामत मंच से नीचे उतर आया था।
स्कूल की शुरु की कक्षाओं के समय की ही एक घटना है, मैं स्कूल में बिना जूते पहने, नंगे पैर ही चला जाता था। इसमें कुछ हद तक घर की आर्थिक स्थिति का भी हाथ था और जो भी कारण रहे हों, मेरी शायद आदत भी बन गई थी। मेरे एक शिक्षक ने जब कक्षा के छात्रों से कहा कि वे मेरे लिए पुराने जूते लेकर आएं तब मेरा स्वाभिमान जाग गया और मैंने यह मैनेज कर लिया कि आगे से जूते पहनकर ही स्कूल जाऊं।
एक ड्राइंग के शिक्षक थे गुप्ता जी, उन्हें यह मालूम हो गया कि मैं मुकेश जी के गाने गाता हूँ और ठीक-ठाक गा लेता हूँ। वो अक्सर जब भी मौका मिलता मुझे कक्षा के सामने गाने के लिए बोलते थे। वैसे मेरी कमज़ोरी और दुबले-पतले शरीर के कारण कुछ लड़के मुझे विनोबा भावे कहकर चिढ़ाते भी थे।
अंग्रेजी के एक शिक्षक थे ओ.पी.शर्मा, वो कहते थे कि देवानंद उनके भतीजे हैं। काफी मोटे थे वो, कहते थे ‘इफ आई गिव यू माई पैंट, इट वुड सर्व यू एज़ ए टेंट’। एक बार ओ.पी.शर्मा जी हमारी क्लास में, अरेंजमेंट क्लास में आए थे, क्योंकि संबंधित शिक्षक उपलब्ध नहीं थे। उस क्लास में शर्मा जी ने हमसे कहा कि सब ‘इफ आई वर ए माली’ विषय पर निबंध लिखें। सबके लिखे निबंधों को उन्होंने सुना,और मेरी बहुत तारीफ की, कहा ‘यू आर ए फ्रीलांसर’। अगले दिन उन्होंने मुझसे पूछा कि वो जो निबंध आपने लिखा था वो कहाँ है, तो मैंने बताया कि वो तो मैंने रफ कॉपी में लिखा था फाड़कर फेंक दिया।
बाद में अंग्रेजी के एक शिक्षक आए जो सरदार जी थे, अच्छे शिक्षक थे, परंतु शुरू में कुछ अलग सा लगा क्योंकि उस समय तक मैंने इस प्रोफेशन में और वो भी अंग्रेजी शिक्षक के रूप में, किसी सरदार जी को नहीं देखा था। फिर एक अंग्रेजी शिक्षक आए हरिश्चंद्र गोस्वामी जी, जिनके बारे में बाद में मालूम हुआ था कि एक नकल वीर ने, नकल से रोकने पर उनकी हत्या कर दी थी।
फिज़िक्स के एक शिक्षक थे कन्हैया लाल जी, वे दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाली फिज़िक्स कक्षाओं में भी आते थे और हमारी स्कूल की क्लास में भी। आते ही सीधे विषय पर बोलना शुरु कर देते थे, बहुत सी बार लगता था हम टीवी पर ही उनकी क्लास देख रहे हैं।
परीक्षाओं में मैंने कभी कोई महान उपलब्धि प्राप्त नहीं की, ले-देकर सैकिंड डिवीज़न में बोर्ड परीक्षा पास की थी, लेकिन इतना था कि स्कूल के बाद भी कुछ शिक्षक जब मिलते थे तो गले से लगा लेते थे।
अंत में निदा फाज़ली साहब की ये पंक्तियां दोहरा लेते हैं-
बच्चों के छोटे हाथों को, चांद सितारे छूने दो
चार किताबें पढ़कर ये भी, हम जैसे हो जाएंगे।
किन राहों से दूर है मंज़िल, कौन सा रस्ता आसां है
हम जब थककर बैठेंगे तब औरों को समझाएंगे।
अगली बार बात करेंगे कॉलेज की।
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