पीताम्बर बुक डिपो में कुल मिलाकर मैं एक साल तक रहा, उसके बाद मैंने फैसला कर लिया कि अब यहाँ अधिक समय तक नहीं रहूंगा। अब तक इतना आत्मविश्वास आ गया था कि मैं इससे बेहतर काम खोज सकता हूँ। और हुआ भी ऐसा, यह काम छोड़ने के बाद एक महीने के अंदर ही दिल्ली प्रेस, झंडेवालान में मुझे काम मिल गया, वेतन 100 रु. से बढ़कर हुआ 150 रुपये।
दिल्ली प्रेस में काम था सर्कुलेशन विभाग में, लाला विश्वनाथ की इस कंपनी में सरिता, मुक्ता, कैरेवान (अंग्रेजी में), चंपक आदि पत्रिकाएं छपती थीं। हमारा काम था ग्राहकों के ऑर्डर में कमी और वृद्धि का रिकॉर्ड रखना और उसी हिसाब से पत्रिकाएं भिजवाने की व्यवस्था करना।
दिल्ली प्रेस में, मैं लगभग 3 साल रहा और यहाँ पर मेरी प्रगति रु. 150/- प्रतिमाह के वेतन से 240/- प्रतिमाह तक हुई। यहाँ पर मेरा एक भामाशाह भी था, जिसकी मुझे अक्सर ज़रूरत रही है शुरू के दिनों में, राजेंद्र नाम था उसका, दफ्तर में चपरासी था लेकिन घर से उसकी आर्थिक स्थिति अच्छी थी अतः मैं समय-समय पर उससे सहायता एवं अनुदान प्राप्त करता रहता था।
दिल्ली प्रेस के सर्कुलेशन विभाग में प्रबंधक थे श्रीमान पी.सी.गुप्ता, जो प्रसन्न कम ही रहते थे, शायद कुछ बीमारी उनको थी, कभी पूछा नहीं उनसे, क्योंकि वहाँ बहुत से कर्मचारी थे, मैं एक कनिष्ठ कर्मचारी था और उनसे कोई घनिष्ठता नहीं थी।
खैर एक-दो दिन गुप्ता जी ऑफिस नहीं आए और फिर खबर मिली कि उनकी मृत्यु हो गई है। उनका घर पहाड़ गंज में था, जो ऑफिस से पास ही था, सो ऑफिस की शोक-मंडली उनके घर गई। मुझे तो आज तक ऐसे में शोक प्रकट करने की कला नहीं आती, मैं चुपचाप बैठने के अलावा कुछ नहीं कर पाता। खैर हमारी मंडली के पास एक अनुभवी बुज़ुर्ग थे, सो संवाद की पूरी ज़िम्मेदारी उन्होंने ले ली थी, उधर गुप्ताजी के पिताजी थे जो अपने बेटे के शोक में आए लोगों से मिल रहे थे।
गुप्ताजी के घर पर हमारी मंडली के बुज़ुर्ग नायक उनके पिता से पूछते जा रहे थे कि क्या हुआ, कैसे हुआ और गुप्ताजी के पिता यंत्रवत ज़वाब देते जा रहे थे। इतने में उनके पड़ौसी आए और उन्होंने पूछा- ‘गुप्ताजी क्या हो गया?’ अब देखा जाए तो यह कोई सवाल था? सब जानते थे कि उनके बेटे की मौत हो गई है और इसी संबंध में पूछताछ वहाँ चल रही थी। लेकिन उस पड़ौसी के पूछे इस छोटे से सवाल में कुछ ऐसा था कि अब तक यंत्रवत ज़वाब देते जा रहे बड़े गुप्ताजी फूट-फूटकर रो पड़े। देखा जाए तो बोले जा रहे शब्दों में ऐसा कुछ नहीं होता, असली संवेदना तो हमारे संबंध में होती है, जिसमें कुछ कहे बिना भी सब कुछ कहा जा सकता है।
खैर हुआ इस तरह कि, दिल्ली प्रेस में सेवा के दौरान शाहदरा से झंडेवालान तक यह यात्रा 3 वर्षों तक चली। सुबह आते समय मैं दिल्ली जं. से झण्डेवालान तक अधिकतर पैदल आता था और शाम को नई दिल्ली से ही ट्रेन पकड़ लेता था। बाद में कई बार सोचा कि सुबह वाली यह नियमित यात्रा काफी लंबी हुआ करती थी।
दिल्ली प्रेस एक ऐसा स्थान है, जहाँ से बहुत से बड़े साहित्यकार निकले, प्रारंभ में, संघर्ष के दिन उन्होंने यहाँ बिताए थे, वैसे मैं तो था ही सर्कुलेशन विभाग में,साहित्य से जुड़ा होने का कोई भ्रम भी मन में नहीं था। दिल्ली प्रेस का वैसे बिक्री के लिए अलग ही एजेंडा है, जहाँ महिलाओं की पत्रिकाएं सिलाई-बुनाई-कढ़ाई पर केंद्रित थीं, वहीं साहित्य से जुड़ी होने का दावा करने वाली पत्रिकाएं हिंदू धर्म के छद्म विरोध को अपना हथियार बनाती थीं। वहाँ इस प्रकार के लेख अक्सर छपते थे- ‘हिंदू समाज के पथभ्रष्टक तुलसीदास’।
इस सेवा के दौरान ट्रेन में दैनिक यात्रा के अनुभव भी बहुत रोचक हैं, जिन्हें बाद में शेयर करूंगा।
खैर साम्यवाद में ऐसी अवधारणा है कि मेहनतकश मिलकर शोषण के विरुद्ध सामूहिक लड़ाई लड़ते हैं, लेकिन मैं देखता हूँ कि ‘दिल्ली प्रेस’ जैसी संस्थाएं तो शोषण के ही महाकेंद्र हैं, महानगरों में ऐसे संस्थानों की भीड़ है, और कर्मचारीगण सुबह से ही बस,ट्रेन और अब मैट्रो भी, की लाइनों में लग जाते हैं, जीवन-यापन की व्यक्तिगत लड़ाई लड़ने के लिए।
उन दिनों लिखा एक गीत शेयर कर रहा हूँ, जो काफी लोकप्रिय हुआ था-
महानगर का गीत
नींदों में जाग-जागकर, कर्ज़ सी चुका रहे उमर,
सड़कों पर भाग-भागकर, लड़ते हैं व्यक्तिगत समर।
छूटी जब हाथ से किताब, सारे संदर्भ खो गए,
सीमाएं बांध दी गईं, हम शंटिंग ट्रेन हो गए,
सूरज तो उगा ही नहीं, लाइन में लग गया शहर,
लड़ने को व्यक्तिगत समर।
व्यापारिक-साहित्यिक बोल, मिले-जुले कहवाघर में,
एक फुसफुसाहट धीमी, एक बहस ऊंचे स्वर में,
हाथों में थामकर गिलास, कानों से पी रहे ज़हर।
कर्ज़ सी चुका रहे उमर।
मीलों फैले उजाड़ में, हम पीली दूब से पले,
उतने ही दले गए हम, जितने भी काफिले चले,
बरसों के अंतराल से गूंजे कुछ अपने से स्वर,
क्रांति चेतना गई बिखर।
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