24. और चुकने के लिए हैं, ऋण बहुत सारे!

अब बारी थी, हिंदुस्तान कॉपर लिमिटेड की ही एक इकाई, खेतड़ी कॉपर कॉम्प्लेक्स में कुछ समय प्रवास की, जयपुर के बाद एक बार फिर से राजस्थान में रहने का अवसर मिला था। राजस्थान के लोग बहुत प्रेम करने वाले हैं। लेकिन यह इकाई क्योंकि दिल्ली और जयपुर, दोनों के बहुत नज़दीक है इसलिए यहाँ राजनीति बहुत जमकर होती है, कम से कम उस समय तो ऐसा ही था। सात-आठ श्रमिक यूनियन थीं उस समय वहाँ, सबके बीच वर्चस्व की लड़ाई, एक बार तो सभी अधिकारियों को पूरी रात ऑफिस में बंद रखा था उन्होंने, अब मुद्दों का क्या है, वे तो मिल ही जाते हैं।

वैसे यूनियनों का एक अलग पक्ष है, वे भी सक्रिय थीं, लेकिन सांस्कृतिक रूप से भी यह क्षेत्र काफी सक्रिय था। यहाँ हिंदी के प्रभारी, जो बाद में पूरी तरह जन संपर्क विभाग को अपना समय देने लगे थे- श्री इंद्रजीत चोपड़ा, उन्होंने मुझे काफी प्रोत्साहन दिया और अपने हिसाब से नई पहल करने की प्रेरणा प्रदान की। यहाँ कई रचनाकार भी थे और एक सज्जन साहित्यिक पत्रिका भी निकालते थे, वैसे वे अस्पताल में डेंटिस्ट थे। यहाँ कई बड़े आयोजन होते थे और मुझे कई आयोजन समितियों में सक्रिय रूप से काम करने का अवसर मिला।

कुल डेढ़ वर्ष के खेतड़ी प्रवास के दौरान मुझे दो तरह के हॉस्टलों में रहने का अवसर मिला, जिनमें से एक था- फ्रेंच हॉस्टल, शायद प्रारंभ में वहाँ फ्रांसीसी एक्सपर्ट रहे होंगे। जब तक रैगुलर आवास में रहने का अवसर आता, तब तक मैंने उस स्थान को भी छोड़ दिया।

खैर मैं आपको खेतड़ी रियासत के ऐतिहासिक महत्व की भी जानकारी दे दूं। मुझे खेतड़ी के राजा का महल देखने का भी अवसर प्राप्त हुआ। मैं यह बता दूं कि वे खेतड़ी के राजा ही थे, जिन्होंने स्वामी विवेकानंद के अमरीका जाने का खर्च वहन किया था। वहाँ महल में एक घटना का विवरण लिखा गया है।

यह घटना ऐसे हुई कि स्वामी विवेकानंद एक बार जब खेतड़ी के महाराजा से मिलने आए, उस समय वहाँ एक गणिका नृत्य कर रही थी। स्वामी जी उसकी आवाज़ सुनकर बाहर ही रुक गए, गणिका स्वामी जी के संकोच को समझ गई और उसने नाचते-नाचते यह भजन गाना प्रारंभ कर दिया-

प्रभु जी मेरे अवगुण चित न धरो।

एक लोहा पूजा में राखत, एक घर वधिक परो,

यह दुविधा पारस नहीं माने, कंचन करत खरो॥

स्वामी जी ने ये पंक्तियां सुनीं तो वे भीतर जाकर उस गणिका के चरणों गिर पड़े और बोले- “ मां, मुझे क्षमा करना, मुझे यह भेद नहीं करना चाहिए था।“

खेतड़ी में लगभग डेढ़ वर्ष के प्रवास के दौरान कई श्रेष्ठ आयोजनों को करने, उनमें भागीदारी का अवसर मिला। इनमें से एक था- श्री राजेंद्र यादव का विशेष व्याख्यान। हिंदी दिवस के अवसर आयोजित इस व्याख्यान में जहाँ श्री यादव ने काफी अच्छी बातें की वहीं शायद अपने तब तक विकसित हो चुके स्वभाव के कारण कुछ विवादास्पद टिप्पणियां भी कर दीं।

जैसे कि श्री यादव ने कहा कि “गीता में श्रीकृष्ण के उपदेशों को मैं एक चालाक वकील के तर्कों से अधिक कुछ नहीं मानता।”

जैसा कि मैंने कहा वहाँ यूनियनों की निरंतर प्रतियोगिता के कारण औद्योगिक  वातावरण कोई बहुत अच्छा नहीं था। जैसे कि हमारे हिंदी अनुभाग में एक चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी थे, जो शायद फौज में काम कर चुके थे, सब उसको फौजी कहते थे। उसकी अधिकारियों के बारे में राय यही थी कि वे सर्प होते हैं, छोटा हो या बड़ा, सबमें विष समान होता है। खैर यही फौजी महोदय थे, जो मेरे कंपनी छोड़ने पर मुझे अपने गांव ले गए और बैंड-बाजे के साथ मेरी विदाई की थी।

कुल डेढ़ वर्ष के प्रवास में ही वहाँ के लोगों से बहुत घनिष्ठ संबंध हो गया था, लेकिन क्या करें एक और नौकरी मिल गई थी, जो ज्यादा आकर्षक थी, सो यहाँ से भी बिस्तर बांधना पड़ गया।

ज़िंदगी की इस भागदौड़ में हर बात का अर्थ बदल जाता है। डॉ. कुंवर बेचैन की कुछ पंक्तियां याद आ रही हैं-

ज़िंदगी का अर्थ मरना हो गया है

और जीने के लिए हैं, दिन बहुत सारे।

इस समय की मेज पर रखी हुई

ज़िंदगी है पिन-कुशन जैसी,

दोस्ती का अर्थ चुभना हो गया है,

और चुभने के लिए हैं, पिन बहुत सारे।

एक मध्यम वर्ग के परिवार की

अल्प मासिक आय सी है ज़िंदगी,

वेतनों का अर्थ चुकना हो गया है,

और चुकने के लिए हैं, ऋण बहुत सारे।

                         -डॉ. कुंवर बेचैन

अब इसके बाद आएगा, नौकरी में मेरा अंतिम पड़ाव- एनटीपीसी।  

============

Leave a Reply

Fill in your details below or click an icon to log in:

WordPress.com Logo

You are commenting using your WordPress.com account. Log Out /  Change )

Facebook photo

You are commenting using your Facebook account. Log Out /  Change )

Connecting to %s

%d bloggers like this: