25. अखबारों में, सेमीनारों में, जीता है आम आदमी!

जैसा कि मैंने बताया, अब बारी थी मेरे सेवाकाल के अंतिम नियोजक, एनटीपीसी लिमिटेड के साथ जुड़ने की, जहाँ मेरी सेवा भी सबसे लंबी रही। 21 मार्च, 1988 को मैंने एनटीपीसी की विंध्याचल परियोजना में कार्यग्रहण किया, यहाँ मुझे सांस्कृतिक गतिविधियों के आयोजन और संचालन का भरपूर अवसर मिला, प्रेम करने वाले ढ़ेर सारे लोग मिले लेकिन कुछ नफरत करने वाले ऊंचे पदों पर बैठे छोटे लोग भी मिले, जिनमें कुछ तो दुश्मनी करते-करते ऊपर भी पहुंच चुके हैं। यहाँ की कहानी सुनाने में कुछ धर्मसंकट भी है, कोशिश करूंगा उसका सामना करने की।

खैर, जैसा होता है रिक्ति सूचना प्रकाशित हुई थी एनटीपीसी की, मैंने आवेदन दिया, उस समय नेहरू प्लेस कार्यालय में लिखित परीक्षा एवं साक्षात्कार हुआ। साक्षात्कार में कुछ विद्वान लोग एवं उच्च अधिकारी थे, जैसा मुझे स्मरण है कि श्री मैनेजर पांडेय भी उसमें थे, उन्होंने पूछा कि यहाँ आने पर क्या विशेष आपको लगता है कि होगा? मैंने कहा था कि यहाँ मुझे स्वतंत्र रूप से कार्य करने का अवसर मिलेगा। इस पर एक धोती, कुर्ता एवं नेहरू जैकेट धारी सज्जन ने कहा था कि स्वतंत्र तो कोई नहीं है, प्रधान मंत्री के ऊपर भी राष्ट्र्पति होते हैं।

ये सज्जन थे – केंद्रीय कार्यालय में तैनात हिंदी प्रभारी- डॉ. राजेंद्र प्रसाद मिश्र, इस संक्षिप्त दर्शन एवं संवाद से इतनी झलक मिल गई थी कि ये सज्जन ढोंगी हैं और हीन भावना से ग्रस्त हैं, इन्हें यह डर बना रहता है कि कहीं इनके वर्चस्व में कमी न आ जाए। बाद में इनके बारे में और बातें होंगी। शुरू में इतना ज़रूर कहना चाहूंगा कि राजभाषा संबंधी रिपोर्टों में थोड़ा बहुत झूठ तो सब जगह बोला जाता है, यहाँ मालूम हुआ कि इनके नेतृत्व में शुद्ध रूप से झूठ बोलना ही चलता है।

विंध्याचल में पहला ठिकाना था हमारा- फील्ड हॉस्टल, जिसका नाम था यमुना भवन और इस प्रकार एनटीपीसी से मेरे 22 वर्ष के घटनापूर्ण साथ का शुभारंभ हुआ, जिसमें से 12 वर्ष तो मैंने विंध्याचल परियोजना में ही बिताए थे। यहाँ मैं बताना चाहूंगा कि तीन-चार लोगों ने एक ही समय में वहाँ कार्यग्रहण किया था, एक से किसी ने पूछा कि कैसा है वहाँ पर तो उसने बताया कि दिल्ली के वसंत विहार जैसा समझ लीजिए, चौड़ी और साफ सड़कें और रात में भी रोशनी इतनी कि सड़क पर पड़ा हुआ पिन उठा सकते हैं।

जब मैंने कार्यग्रहण किया उस समय महाप्रबंधक थे श्री वेंकटरमण, जो मेरे कार्यग्रहण के बाद कुछ समय ही रहे, बहुत प्रभावी और रौबीले अधिकारी थे। उसके बाद श्री एस.एस.एस.दुआ ने महाप्रबंधक के रूप में पदभार ग्रहण किया, बहुत अच्छे अधिकारी थे, बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे तथा सभी प्रकार की गतिविधियों में उनकी सक्रिय रुचि थी। उनके समय में मैंने बहुत अच्छे कवि सम्मेलनों का आयोजन किया तथा ‘विंध्य वीणा’ नाम से हिंदी अनुभाग की वार्षिक पत्रिका का भी प्रकाशन प्रारंभ किया।

कार्मिक एवं प्रशासन विभाग में हमारे मुख्य कार्मिक प्रबंधक थे श्री आर.एन.रामजी, जो बहुत सिद्धांतवादी व्यक्ति थे, पहले केंद्रीय कार्यालय में रह चुके थे और कंपनी के नियमों के निर्माण में उनकी प्रमुख भूमिका थी। सिद्धांतवादी होने का यह परिणाम भी हुआ कि उन्होंने सी.बी.आई. से आए हुए सतर्कता अधिकारी को उसकी पात्रता से ऊंचा आवास नहीं दिया और बाद में सी.बी.आई. की जांच का सामना उनको करना पड़ा।

यहाँ मैं राजभाषा के अलावा जनसंपर्क, स्कूल समन्वय,कल्याण आदि कार्य भी देख रहा था, अक्सर ऐसा होता था कि मैं कोई सांस्कृतिक कार्यक्रम संचालित करता था और उसके बाद अपने घर चला जाता था, अगले दिन सुबह महाप्रबंधक कार्यालय से हमारे यहाँ फोन आता था, मुझे ढ़ूंढ़कर भेजा जाता, मैं घबराता कि क्या हो गया, तब  मालूम होता कि महाप्रबंधक महोदय ने मुझे पिछले दिन के आयोजन के सफल संचालन हेतु बधाई देने के लिए बुलाया है।

श्री दुआ ने अपने कार्यकाल में वहाँ लायंस क्लब की गतिविधियों को भी भरपूर बढ़ावा दिया और इस बहाने काफी दूर-दूर से लोग यहाँ आते थे और क्लब के कार्यक्रमों के संचालन से भी मुझे लोगों का काफी प्रेम मिला।

नौकरी के दौरान, प्रोजेक्ट लाइफ में क्या हुआ, यह बात तो करते रहेंगे, अभी एक घटना दिल्ली की बता दूं, दिल्ली-शाहदरा, जहाँ मेरी मां अभी तक रहती थीं, पहले हम सभी एक बड़ा सा कमरा और रसोई लेकर 16 रुपया महीना पर रहते थे, अभी मेरी मां एक छोटी सी कोठरी में रहती थीं,जिसमें मुश्किल से एक छोटा सा खटोला आता था, इसका किराया था 100 रुपया। समय काफी बदल चुका था।

खैर मैं वहाँ गया, मां ने बड़े चाव से खाना बनाकर खिलाया, चलते समय मैंने मां को चार नोट दिए, मां बोली बेटा एक और दे देता तो ठीक रहता, दो महीने का किराया 200/- देना है, सौदे के 100/- बाकी हैं,100/- का अभी आ जाएगा, 100/- आगे के लिए बच जाते तो ठीक रहता।

यह सब बताने का उद्देश्य मात्र इतना है कि मैंने जो 500/- के नोट दिए थे उनको मेरी मां 100 के नोट समझ रही थे, और उसकी अपेक्षाएं कितनी कम थीं। सही बात बताने पर मां ने भरपूर आशीर्वाद दिए।

खैर यह अफसोस तो सदा रहा कि मां हमारे साथ रहकर अधिक सुख न भोग सकी।

अपनी लिखी कुछ पंक्तियां याद आ रही हैं-

मंदिर के पापों ने कर दिया,

नगरी का आचरण सियाह,

होता है रोज आत्मदाह।

मौलिक प्रतिभाओं पर फतवों का

बोझ लादती अकादमी,

अखबारों में सेमीनारों में

जीता है आम आदमी,

सेहरों से होड़ करें कविताएं

कवि का ईमान वाह-वाह।

होता है रोज आत्मदाह।।  

 

जीने की गूंगी लाचारी ने,

आह-अहा कुछ नहीं कहा,

निरानंद जीवन के नाम पर,

एक दीर्घ श्वास भर लिया,

और प्रतिष्ठान ने दिखा दिया

पंथ ताकि हो सके निबाह।

होता है रोज आत्मदाह।।  

हर अनिष्टसूचक सपना मां का,

बेटे की सुधि से जुड़ जाता है,

और वो कहीं पसरा बेखबर

सुविधा के एल्बम सजाता है।

ये युग कैसा जीवन जीता है,

उबल रहा तेल का कड़ाह।

होता है रोज आत्मदाह।।

                                (श्रीकृष्ण शर्मा)

नमस्कार।

============

Leave a Reply

Fill in your details below or click an icon to log in:

WordPress.com Logo

You are commenting using your WordPress.com account. Log Out /  Change )

Facebook photo

You are commenting using your Facebook account. Log Out /  Change )

Connecting to %s

%d bloggers like this: