विंध्याचल परियोजना में प्रवास का ब्यौरा और ज्यादा लंबा नहीं चलेगा, अब इसको जल्दी ही समाप्त करना होगा। कवि सम्मेलनों जो कुछ अपनी उम्मीद के मुताबिक नहीं हुआ उसका ज़िक्र कर लेता हूँ। यह मेरा सौभाग्य ही था कि उस समय जहाँ नीरज जी जैसे महान गीतकार से निकट परिचय हो गया था, वहीं सोम ठाकुर जी, डॉ. कुंवर बेचैन जी, किशन सरोज जी, कैलाश गौतम जी, पं. चंद्र शेखर मिश्र जी, पटना के श्रेष्ठ कवि एवं संचालक श्री सत्यनारायण जी, ओम प्रकाश आदित्य जी आदि अनेक कवि थे जिनसे व्यक्तिगत मित्रता हो गई थी। डॉ. बेचैन तो पहले से मेरे गुरुतुल्य थे।
लेकिन कुछ कवि ऐसे भी थे, जिनको बुलाना मुझको नहीं जंचा, कारण जो भी हों। इनका ज़िक्र कर लेता हूँ। इनमें से एक तो कोई त्रिपाठी जी थे, लखनऊ में केंद्रीय विद्यालय में पढ़ाते थे। हुआ यूं कि मैं आकाशवाणी लखनऊ में गया, वहाँ जो कार्यक्रम निष्पादक थे, उनसे मिलकर यह जानने कि वहाँ के कुछ श्रेष्ठ कवि कौन से हैं, जिनको बुलाया जा सकता है।
दुर्भाग्य से कार्यक्रम निष्पादक नहीं मिले और उनके कमरे में यह सज्जन मिल गए। (अब मुझे लगता है कि शायद इन सज्जन से बचने के लिए ही कार्यक्रम निष्पादक अपने कमरे से दूर चले गए हों।) खैर त्रिपाठी जी ने अपनी इतनी तारीफ की, कि मुझे लगा कि जो कुछ मैं खोज रहा था, वही मुझे मिल गया। त्रिपाठी जी ने यह भी बताया कि किसी कार्यक्रम में प्रधानमंत्री श्री वाजपेयी जी ने लखनऊ के बहुत से कवियों को सुनने के बाद जब उनको सुना तो वे बोले कि इनको अब तक कहाँ छिपा रखा था! खैर इंसान हूँ यार, धोखा तो हो जाता है न! कवि सम्मेलन में त्रिपाठी जी को सुनने के बाद मालूम हुआ कि ये तो वह मैटीरियल है, जिसे माइक के सामने से हटाना पड़ता है।
एक और कवि-व्यंग्यकार हैं, फिल्म के लिए भी उन्होंने लिखा है। जब उन्होंने अपनी रचनाएं हमारे यहाँ पढीं, उसके बाद मेरा बेटा बोला- पापा इनको फिर कभी मत बुलाना। कारण- उन्होंने भारतीय क्रिकेट और अमिताभ बच्चन के विरुद्ध अपने आलेख पढे थे, वैसे भी वे कविताएं नहीं हैं। आप खेल को खेल की तरह न देख पाएं और अमिताभ बच्चन जैसे कलाकार का उसके किसी गाने के कारण मज़ाक़ उड़ाएं! मेरा स्पष्ट मत है इस तरह के आलेख आप खूब लिख सकते हैं, अगर आपके मन की मूल भावना ईर्ष्या की हो।
मैं यह भी बताना चाहूंगा कि जब के.पी.सक्सेना जी हमारे यहाँ पहुंचे, जी हाँ मैं इनकी ही बात कर रहा था, तब मैं अपनी परंपरा के अनुसार उनका स्वागत करने के लिए पहुंचा। मेरे पहुंचते ही वो बोलने लगे ‘गीज़र काम नहीं कर रहा है, चाय अच्छी नहीं मिली।’ मैंने बताया कि मैं तो आपके स्वागत के लिए आया था, मैं अभी इन समस्याओं को देख लेता हूँ।
श्री सक्सेना जी अपने आलेखों में अंग्रेजी के उपयोग का मज़ाक उड़ाते थे, परंतु जब उन्होंने यह पता कर लिया कि मेरे बॉस कौन हैं, श्री दुबे जी थे उस समय, उन्होंने जाने के बाद भ्रष्ट अंग्रेजी में दुबे जी को एक पत्र लिखकर कहा कि भविष्य में आपको कवि सम्मेलन कराना हो, तब मुझे (सक्सेना जी को) बताना, मैं बढ़िया टीम दिला दूंगा।
एक और कवि का ज़िक्र करना चाहूंगा- श्री सांड बनारसी। एक बार ये फैसला किया गया कि कवियों की एक टीम बुलाकार, एनटीपीसी की आसपास स्थित तीनों परियोजनाओं में कवि सम्मेलन कराया जाए। इस कार्यक्रम के संचालन के लिए मैं वाराणसी में श्रेष्ठ कवि श्रीयुत श्रीकृष्ण तिवारी जी से मिला। तिवारी जी ने मुझे बताया कि सांड बनारसी जी को इस आयोजन का पता चल गया है और वे उनसे अनुरोध कर रहे हैं कि उनको भी ले चलें। वैसे सांड बनारसी जी मेरी प्राथमिकता में बिल्कुल नहीं थे लेकिन उनके कहने पर मैंने इनको टीम में शामिल कर लिया। लेकिन सांड बनारसी जी को यह मालूम हो गया था कि मैं उनको नहीं बुलाना चाह रहा था। यह भी सही है कि प्रशंसक तो उनके भी बहुत हैं, शायद श्रीकृष्ण तिवारी जी से ज्यादा हैं। ये तो मेरा पागलपन है कि मैं इनको नहीं बुलाना चाहता। तो बाद में सांड बनारसी जी ने बगल की परियोजना में अपने प्रशंसक अधिकारी को धन्यवाद देते हुए पत्र लिखा और कहा कि हमारे यहाँ उनको काफी तकलीफ हुई थी।
उस समय हमारे विभागाध्यक्ष थे, सकारात्मक सोच वाले नंद बाबा, उनको तो मानो ब्रह्मास्त्र मिल गया उस पत्र से।
इससे पहले कि विंध्यनगर छोड़ने की घोषणा करूं, कोशिश करता हूँ कुछ मीठी यादों को वहाँ की, ताज़ा करने की। हालांकि मेरे प्रिय गायक मुकेश जी का गीत है-
भूली हुई यादों, मुझे इतना ना सताओ,
अब चैन से रहने दो, मेरे पास न आओ।
बेशक अगले ब्लॉग में नितिन मुकेश जी के प्रोग्राम का विवरण दूंगा।
कुछ बातें याद आती हैं, आकाशवाणी रीवा से समय-समय पर कविताओं का प्रसारण, नियमित रूप से होता था। वहाँ से ‘ए’ ग्रेड के कवि हेतु अपग्रेड करने का प्रस्ताव भी बढ़ाया गया, लेकिन बाद में कुछ अलग प्रकार का स्टॉफ वहाँ आ गया और अचानक यह आना-जाना बंद हो गया।
कार्यक्रमों का संचालन तो नियमित रूप से करता ही था। एक बार ऐसा हुआ कि 500 से अधिक कर्मचारियों को दीर्घ-सेवा पुरस्कार दिए जाने थे। शुरू में लग रहा था कि कैसे निपटेगा यह कार्यक्रम। शुरू में कर्मचारी काफी कम संख्या में पहुंचे थे। इस पर मैंने टिप्पणी की थी कि पुरस्कार पाने वाले साथियों की संख्या लगभग उतनी है जितनी हमारे एक सदन के माननीय सांसदों की है और उपस्थिति भी लगभग वैसी ही है, जैसी वहाँ होती है।
प्रशंसा और प्यार लोगों से बहुत मिला, लेकिन कभी कोई पुरस्कार नहीं मिला, कोई अफसोस नहीं, बस ऐसे ही ज़िक्र कर दिया। बड़ों की प्रशंसा में डिप्लोमैसी भी होती है बहुत बार। एक बार जब मैं मंच से उतरा तो एक कर्मचारी साथी अपने 3-4 साल के बच्चे को साथ लेकर आए, बोले कि कह रहा था, उन अंकल से मिलवा दो। मेरे लिए यह सबसे बड़ा पुरस्कार था।
एक बात का खयाल आ रहा है कि अनेक कवियों की रचनाओं का मैंने यहाँ उल्लेख किया लेकिन गीतों के राजकुंवर नीरज जी को छोड़ दिया। लीजिए नीरज जी की कुछ रचनाएं और उनकी विख्यात रचना ‘कारवां के कुछ अंश –
जब भी इस शहर में कमरे से मैं बाहर निकला,
मेरे स्वागत को हर एक जेब से खंजर निकला ।
तितलियों फूलों का लगता था जहाँ पर मेला,
प्यार का गाँव वो बारूद का दफ़्तर निकला ।
डूब कर जिसमे उबर पाया न मैं जीवन भर,
एक आँसू का वो कतरा तो समुंदर निकला ।
मेरे होठों पे दुआ उसकी जुबाँ पे ग़ाली,
जिसके अन्दर जो छुपा था वही बाहर निकला ।
ज़िंदगी भर मैं जिसे देख कर इतराता रहा,
मेरा सब रूप वो मिट्टी की धरोहर निकला ।
वो तेरे द्वार पे हर रोज़ ही आया लेकिन,
नींद टूटी तेरी जब हाथ से अवसर निकला ।
रूखी रोटी भी सदा बाँट के जिसने खाई,
वो भिखारी तो शहंशाहों से बढ़ कर निकला ।
क्या अजब है इंसान का दिल भी ‘नीरज’
मोम निकला ये कभी तो कभी पत्थर निकला ।
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आँसू जब सम्मानित होंगे मुझको याद किया जाएगा
जहाँ प्रेम का चर्चा होगा मेरा नाम लिया जाएगा।
मान-पत्र मैं नहीं लिख सका
राजभवन के सम्मानों का
मैं तो आशिक रहा जनम से
सुंदरता के दीवानों का
लेकिन था मालूम नहीं ये
केवल इस गलती के कारण
सारी उम्र भटकने वाला, मुझको शाप दिया जाएगा।
खिलने को तैयार नहीं थीं
तुलसी भी जिनके आँगन में
मैंने भर-भर दिए सितारें
उनके मटमैले दामन में
पीड़ा के संग रास रचाया
आँख भरी तो झूमके गाया
जैसे मैं जी लिया किसी से क्या इस तरह जिया जाएगा
काजल और कटाक्षों पर तो
रीझ रही थी दुनिया सारी
मैंने किंतु बरसने वाली
आँखों की आरती उतारी
रंग उड़ गए सब सतरंगी
तार-तार हर साँस हो गई
फटा हुआ यह कुर्ता अब तो ज्यादा नहीं सिया जाएगा
जब भी कोई सपना टूटा
मेरी आँख वहाँ बरसी है
तड़पा हूँ मैं जब भी कोई
मछली पानी को तरसी है,
गीत दर्द का पहला बेटा
दुख है उसका खेल खिलौना
कविता तब मीरा होगी जब हँसकर जहर पिया जाएगा।
और अंत में ‘कारवां’ की कुछ पंक्तियां-
स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से
लुट गए सिंगार सभी, बाग के बबूल से,
और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे,
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे।
नींद भी खुली न थी, कि हाय धूप ढल गई,
पांव जब तलक उठे, कि ज़िंदगी फिसल गई,
पात-पात झर गये कि शाख़-शाख़ जल गई,
चाह तो निकल सकी न, पर उमर निकल गई,
गीत अश्क़ बन गए,
छंद हो दफ़न गए,
साथ के सभी दिऐ धुआँ-धुआँ पहन गये,
और हम झुके-झुके,
मोड़ पर रुके-रुके
उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे।
आज के लिए इतना ही, नमस्कार।
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