35. जहां जाएं वहीं – सूखे, झुके मुख-माथ रहते हैं।

पश्चिम क्षेत्र मुख्यालय, मुंबई में मैंने मई 2000 में कार्यग्रहण किया, यहाँ मेरा दायित्व मुख्य रूप से जनसंपर्क का काम देखने का था।

मुझे पवई क्षेत्र में 14 मंज़िला इमारत में, टॉप फ्लोर पर क्वार्टर मिला, सामने सड़क के पार पवई लेक और एक तरफ हीरानंदानी की अत्यंत आकर्षक सड़कें और इमारतें। पहली बार देखने पर लगा कि जैसे यह यूरोप का कोई इलाका है। कुछ आगे चलकर आईआईटी, पवई थी।

मैं तो दिन में ऑफिस में रहता था लेकिन मेरे परिजनों को अक्सर ऊपर से किसी शूटिंग के दृश्य देखने को मिल जाते थे।

पवई का यह इलाका, अंधेरी पूर्व में आता था और मेरा ऑफिस भी अंधेरी पूर्व में ही था, सीप्ज़ के पास। मुंबई में मैंने यह खास बात देखी कि ऑटो स्टैण्ड पर ही लोग ऑटो शेयर कर लेते थे। 10-12 रुपये लगते थे एक शेयर्ड  सवारी के रूप में ऑफिस जाने के लिए।

इस प्रकार मैं एक संकट से बचा हुआ था, भारी भीड़ के समय लोकल ट्रेन में यात्रा करने का संकट, वास्तव में इसके लिए विशेष कौशल की ज़रूरत है। शुरू के दिनों में एक बार तो मैंने अपना चश्मा गंवा दिया था। मुंबई की लोकल में चश्मा और मोबाइल संभालकर रखना आसान काम नहीं है।

ड्यूटी जाने के लिए मुझे लोकल में यात्रा करने की आवश्यकता नहीं थी, लेकिन मैं मुंबई घूमना तो चाहता था, विशेष रूप से समुंदर का किनारा। इसलिए वहाँ पहुंचने के एक-दो महीने बाद ही मैंने लोकल ट्रेन का मासिक पास बनवा लिया था, मैं अक्सर शाम को ऑफिस के बाद अंधेरी से लोकल पकड़कर आखिरी स्टेशन तक चला जाता था, समुंदर के किनारे कुछ समय टहलकर वापस घर आता था।

अब कुछ बात ऑफिस की कर लेते हैं, मुंबई पहुंचने के बाद मैंने वहाँ के कुछ स्थानीय अखबारों के साथ अच्छे संबंध बना लिए थे, विशेष रूप नवभारत के महाप्रबंधक तथा एक-दो और पत्रकारों के साथ प्रेस क्लब जाता था और अपने ईडी- श्री आर.डी. गुप्ता के कई साक्षात्कार, काफी प्रमुखता से छपवाए। वहाँ की गृह पत्रिका तो नियमित रूप से छपती ही थी।

लेकिन धीरे-धीरे मुझे लगा कि यहाँ अपने निष्पादन से प्रसन्न करने वाले लोगों की ज़रूरत नहीं है। एक तो केंद्रीय कार्यालय में श्रीमान स्वतंत्र कुमार जी बैठे हुए थे, जो इस प्रयास में लगे थे कि मुझे किसी ऐसे स्टेशन पर भेज दें, जिसे एनटीपीसी में काला-पानी माना जाता हो। दूसरे मुंबई कार्यालय में एक थे श्रीमान एस.एस.राजू, जो बहुत बड़े पॉवर ब्रोकर, शुद्ध भाषा में कहें तो दलाल थे।

इन श्रीमान राजू जी को ऐसा लग गया कि चतुर्वेदी जी, मुझको वहाँ इनके खिलाफ इस्तेमाल करने के लिए ले गए हैं। अब उनके मन में ऐसा रहा भी हो तो मुझे मालूम नहीं, लेकिन मैं किसी के खिलाफ इस्तेमाल की चीज़ नहीं हूँ।

श्री चतुर्वेदी मुंबई से स्थानांतरित होकर लखनऊ जा चुके थे, जहाँ कंपनी का उत्तरी क्षेत्र मुख्यालय है, और इसके बाद श्रीमान राजू के मंत्रजाल में श्री आर.डी.गुप्ता फंस गए और जैसे भी हो, मेरा ट्रांसफर लखनऊ हो गया।

श्रीमान राजू जी के बारे में माना जाता है कि इनकी जान-पहचान मंत्रालय में बड़े अधिकारियों से है। अब कंपनी में उच्च पदों पर बैठे लोग तो ऐसे दलालों की मुट्ठी में रहते हैं।

मुझे मालूम है कि बाद में पश्चिम क्षेत्र के ईडी रहे श्री एच.एल.बजाज, जब सीएमडी बनने की रेस में थे, तब उनकी  तरफ से मंत्रालय में पैरवी करने के लिए, श्रीमान राजू लगभग एक महीने तक, सरकारी दौरे पर दिल्ली में रहे थे। ये अलग बात है कि श्री बजाज सीएमडी नहीं बन पाए, हो सकता है दूसरी तरफ से जो दलाल लगा था, वो ज्यादा मज़बूत रहा हो।

खैर मुंबई में मेरा ऑफिशियल प्रवास रहा- कुल मिलाकर 8 महीना 8 दिन। मुंबई नगरी में रहने का लालच ऐसा कि मैं क्वार्टर में लगभग एक साल तक रहा। एक बात यह भी कि मेरे बेटे ने दिल्ली से पढ़ाई छोड़कर मुंबई यूनिवर्सिटी में ग्रेजुएशन शुरू किया और वहाँ की उसकी एक वर्ष की पढ़ाई बेकार ही गई।

सच्चाई तो यह है कि मुंबई में फिल्मी और टीवी स्टूडियो के जो सपने बुने थे, उस बारे में तो ठीक से सोच भी नहीं पाया कि वहाँ से फिसलकर लखनऊ आ गया।

खैर जो भी हो मुझे एक वर्ष मुंबई में रहना अच्छा लगा। ये लंबा चलता तो और अच्छा लगता।

आज ओम प्रभाकर जी का एक गीत शेयर कर लेता हूँ-

 

यात्रा के बाद भी

 पथ साथ रहते हैं।

खेत, खंभे, तार सहसा टूट जाते हैं,

हमारे साथ के सब लोग हमसे छूट जाते हैं।

फिर भी हमारी बांह, गर्दन, पीठ को छूते

गरम दो हाथ रहते हैं।

 

घर पहुंचकर भी न होतीं खत्म यात्राएं

गूंजती हैं सीटियां, अब हम कहाँ जाएं।

जहां जाएं वहीं सूखे, झुके

मुख-माथ रहते हैं।

                          (ओम प्रभाकर)

 

नमस्कार।

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