37. हम सदा जिए झुककर सामने हवाओं के

मेरे न चाहते हुए भी, एनटीपीसी में आने के बाद की मेरी कहानी मुख्य रूप से कुछ नकारात्मक चरित्रों पर केंद्रित होकर रह गई है। वैसे मेरे जीवन में इन व्यक्तियों का बिल्कुल महत्व नहीं है। मैं बस कुछ प्रवृत्तियों को रेखांकित करना चाहता था, आगे भी करूंगा।

जैसा मैंने कहा कि अच्छे व्यक्तियों को ज्यादा फुटेज नहीं मिल पाता। मैंने एनटीपीसी से पहले के प्रसंगों में तो ऐसे व्यक्तियों का उल्लेख किया है, एनटीपीसी में नहीं किया क्योंकि यहाँ यह नेगेटिव गैंग छा गया। लेकिन मैं यहाँ  कुछ पॉज़िटिव लोगों का उल्लेख अभी करना चाहूंगा। यहाँ मैं ऐसे कुछ लोगों का ही ज़िक्र करूंगा जो मेरे विभाग में थे या मुझसे ऊपर थे। अन्य विभागों के अधिकारियों / साथियों का ज़िक्र किया तो ये किस्सा बहुत लंबा हो जाएगा।

जैसे मेरे पहले बॉस श्री आर.एन.रामजी, बहुत जानकार और पॉज़िटिव इंसान थे, श्री सुधीर चतुर्वेदी जी भी अच्छे इंसान थे और एनटीपीसी छोड़ने के बाद बहुत ऊपर तक गए। श्री एस.के.कपाई और श्री एस.के.आचार्य का ज़िक्र मैं एक साथ करना चाहूंगा। दोनों बहुत अच्छे इंसान थे। फर्क इतना था कि श्री कपाई बहुत भावुक थे और श्री आचार्य बिल्कुल प्रैक्टिकल। श्री कपाई को कंपनी में बहुत झेलना पड़ा वरना उनको डायरेक्टर स्तर तक तो पहुंचना ही चाहिए था।

श्री अविनाश चंद्र चतुर्वेदी ने मुझे भरपूर सहयोग प्रदान किया और वे मेरे साथ हो रहे अन्याय से दुखी भी थे।

यहाँ एक किस्सा सुना देता हूँ, एक पॉज़िटिव अधिकारी का। विंध्याचल परियोजना में रहते हुए ही, जब श्री एस.के.आचार्य हमारे बॉस थे, उस समय केंद्रीय कार्यालय द्वारा सूचित किया गया कि वहाँ पर काफी अधिक अतिरिक्त फर्नीचर है, जो वे परियोजनाओं को देना चाहते हैं। परियोजना की तरफ से मुझे वहाँ भेजा गया, फर्नीचर चुनने और लाने की व्यवस्था के लिए।

केंद्रीय कार्यालय में यह कार्य श्रीमती वेंकटरमण देखती थीं जो वहाँ वरिष्ठ प्रबंधक थीं। मैं उस समय शायद उप प्रबंधक (राजभाषा) के पद पर कार्यरत था। श्रीमती वेंकटरमण से मैं पहले कभी नहीं मिला था और उनके पति उस समय काफी ऊंचे पद पर थे जो कि मेरे कार्यग्रहण के समय हमारे महाप्रबंधक थे।

मैं यहाँ श्रीमती वेंकटरमण की सज्जनता और शालीनता के लिए उनका ज़िक्र कर रहा हूँ। उन्होंने मेरा भरपूर मार्गदर्शन किया, बार-बार ये कहती रहीं कि कोई दिक्कत हो तो मैं उनको बताऊं।

अब सरकारी कामों में ऐसा हो जाता है, मैं 3-4 दिन का अनुमान लगाकर आया था और मुझे वहाँ लगभग एक सप्ताह ज्यादा रहना पड़ा। मेरे पास पैसे खत्म हो चुके थे और मुझे वहाँ से दौरा बढ़ाने का अनुमोदन और एडवांस लेना था। उस समय तक डेबिट कार्ड भी नहीं होते थे। मैं इसके लिए फॉर्म भरकर केंद्रीय कार्यालय में प्रबंधक (राजभाषा) – डा. राजेंद्र प्रसाद मिश्र के पास गया, ऐसा मानते हुए कि वे तो इस पर तुरंत हस्ताक्षर कर देंगे। ये श्रीमान बोले- ‘पंडित जी, कोई और काम हो तो बोलिये, ये तो मैं नहीं कर पाऊंगा। मैं जन संपर्क का काम भी देखता था, सो उसके प्रभारी श्री हिंडवान जी के पास गया, उनसे अनेक बार मीटिंग्स में मुलाकात हुई थी। वे बोले कि मुझको वो जानते ही नहीं हैं।

मैं बिना पैसे के दिल्ली में परेशान था, तब श्रीमती वेंकटरमण के पास गया तो उन्होंने तुरंत हस्ताक्षर कर दिए। इसके बाद जब वित्त विभाग का अधिकारी पैसा देने में आनाकानी कर रहा था, तब श्रीमती वेंकटरमण स्वयं मेरे साथ वहाँ चली गईं। उनको देखते ही वह बोला- ‘अरे आप किनको ले आए!’, फिर श्रीमती वेंकटरमण से बोला, ‘मैडम मैं कर ही रहा था बस!’

अब मैं पॉज़िटिव अधिकारियों की बात कर रहा था, तो इतना ही बता दूं कि श्रीमती वेंकटरमण जैसे बहुत से अधिकारी होंगे, जिनको हम सामान्यतः नोटिस ही नहीं कर पाते, क्योंकि हमारे मस्तिष्क पर कुछ नकारात्मक अधिकारी डेरा जमाए रहते हैं।

शारू रांगनेकर के मैनेजमेंट संबंधी व्याख्यानों में से एक है- ‘दीपशिखा मैनेजर्स’, ये ऐसे प्रबंधक होते हैं, कि नकारात्मकता के वातावरण में, जहाँ-जहाँ ये चलते हैं, सकारात्मकता की रोशनी इनके साथ चलती है।

मैं ऐसे सभी, वास्तव में सकारात्मक आचरण वाले कार्यपालकों और कर्मचारियों को अपनी शुभकामनाएं देता हूँ। ऐसे लोगों के दम पर ही प्रतिष्ठानों की साख बनती है।

मुझे लगा कि कब तक मैं घटिया लोगों का गाना गाता रहूं, इसलिए आज ये किस्सा सुना दिया।

आज मन हो रहा है अपना एक गीत शेयर करने का। पृष्ठभूमि बता दूं, जिस प्रकार कोई संगीतकर साज़ छेड़कर वातावरण में अपनी मनचाही संगीत तरंगे पैदा करता है, वैसे ही माना जाता है कि लोकतंत्र में जनता अपना मन चाहा स्ट्रक्चर तैयार करती है, लेकिन लगता है कि ऐसा हो नहीं पाता, बाकी आप लोग समझदार हैं-

 

हमने कब मौसम का वायलिन बजाया है। 

 

हम सदा जिए झुककर, सामने हवाओं के,

उल्टे ऋतुचक्रों, आकाशी घटनाओं के,

अपना यह हीनभाव, साथ सदा आया है।

 

छंद जो मिला हमको, गाने को

घायल होंठों पर तैराने को,

शापित अस्तित्व और घुन खाए सपने ले,

मीन-मेख क्या करते-

गाना था, गाया है।

 

नत हैं हम अदने भी, शब्द हुए रचना में,

भीड़ हुए सड़कों पर, अंक हुए गणना में,

तस्वीरें, सुर्खियां सदा से ही-

ईश्वर है या उसकी माया है।

हमने कब मौसम का वायलिन बजाया है।

                                                                                                               (श्रीकृष्ण शर्मा)

 नमस्कार।

============

Leave a Reply

Fill in your details below or click an icon to log in:

WordPress.com Logo

You are commenting using your WordPress.com account. Log Out /  Change )

Facebook photo

You are commenting using your Facebook account. Log Out /  Change )

Connecting to %s

%d bloggers like this: