अभी तक मैं वर्षों के हिसाब से बात कर रहा था, जो घटना पहली हुई वह पहले और जो बाद में हुई वह बाद में। पिछले ब्लॉग में, मैं काफी पीछे चला गया था।
वैसे मैंने लखनऊ पहुंचने तक की बात की थी, जिसके बाद लगभग 10 वर्ष की सेवा एनटीपीसी में रही।
समय क्रम को छोड़ते हुए, चलिए अब राजभाषा हिंदी की बात कर लेते हैं। इसके साथ तो मैं एनटीपीसी की सेवा में आने के समय से अंत तक जुड़ा रहा था।
एक बात में मुझे शुरू से कहीं कोई संदेह नहीं रहा कि राजभाषा नीति के अनुपालन की पूरी ज़िम्मेदारी परियोजना या कार्यालय प्रधान की है और ऐसा करने की क्षमता भी अगर है तो उनके पास ही है। इसी को सही मानते हुए मैंने शुरू से ही राजभाषा कार्यान्वयन समिति की बैठकों में और महाप्रबंधक की ओर से समय-समय पर जारी निर्देशों के माध्यम से इस पर बल दिया और महाप्रबंधक- श्री दुआ के समय, काफी हद तक इसका असर भी हुआ।
एक बात स्पष्ट है कि हिंदी में काम यदि सभी या अधिकांश कर्मचारी करेंगे तभी होगा, राजभाषा अधिकारी के करने से नहीं होगा।
अब राजभाषा कार्यान्वयन के मामले में सरकारें कितनी गंभीर रही हैं और एनटीपीसी प्रबंधन कितना गंभीर है, यह किसी से छिपा नहीं है।
कभी जब कोई महाप्रबंधक, राजभाषा अधिकारी से पूछता है कि हिंदी की प्रगति क्यों नहीं हो रही है, तो यह मज़ाक ही लगता है। केंद्रीय कार्यालय से आने वाले अधिकारी भी ऐसे प्रश्न परियोजना प्रधान से नहीं पूछते हैं।
कुल मिलाकर राजभाषा कार्यान्वयन का मामला रिपोर्टें तैयार करने तक रह गया है। शुरू में लोगों ने सोचा भी हो कि परिस्थिति में परिवर्तन किया जाए, लेकिन अब यही रह गया है कि रिपोर्टों में परिवर्तन किया जाए।
एक उदाहरण याद आ रहा है, श्री एस.आर.एस.पांडेय, जो विधि के क्षेत्र में कार्यरत थे, ऊंचाहार में हमारे साथ काफी समय रहे, किस्सा उनके साथ जुड़ा है। शुरू के दिनों में जब वे बदरपुर थर्मल पॉवर स्टेशन में विधि के साथ ही राजभाषा का भी काम देख रहे थे, तब राजभाषा विभाग की ओर से निरीक्षण के लिए आने वाले कोई अधिकारी उनको राजभाषा के कार्यान्वयन संबंधी कोई पुरस्कार देना चाहते थे और पांडेय जी उस पुरस्कार को लेने के लिए तैयार नहीं थे। इस पर उन सज्जन ने केंद्रीय कार्यालय के राजभाषा वीर डॉ. राजेंद्र प्रसाद मिश्र को इसकी शिकायत की।
मिश्र जी ने उनसे कहा कि जैसे वे कह रहे हैं, वैसी रिपोर्ट तैयार कर दो और पुरस्कार ले लो, इस पर श्री पांडेय ने बताया कि मैं 10% पत्राचार को हद से हद 20% दिखा सकता हूँ, लेकिन मैं पुरस्कार पाने के लिए उसको 80% नहीं दिखा सकता।
एनटीपीसी में राजभाषा शील्ड देने का चलन चला, तब शुरू में तो हमारी विंध्याचल परियोजना को यह शील्ड मिली, क्योंकि उस समय पत्राचार के आंकडों के अलावा, गतिविधियों के और कई क्षेत्र थे, जो निर्णय को प्रभावित करते थे, लेकिन बाद में जब पत्राचार के आंकडों की मुख्य भूमिका हो गई, अर्थात झूठ ही पुरस्कृत होने का आधार बन गया, तब से हम तो पूरी तरह रेस से बाहर हो गए।
अचंभा इसी बात का है कि माननीय सांसदों की जो समिति किसी होटल में बैठकर निरीक्षण की कार्यवाही में, जो कुछ उनको दिखा दिया जाता है, उसके आधार पर निर्णय लेती है, किसको ऐसा लगता है कि इससे राजभाषा हिंदी की कोई प्रगति होगी। यह तो कुल मिलाकर हिम्मत के साथ झूठ बोलने की प्रतियोगिता बनकर रह गई है। अगली बार यदि आपके संस्थान को राजभाषा हिंदी संबंधी कोई पुरस्कार मिलता है तो इस पर गर्व मत कीजिए, जांच कराइए।
सरकार को भी सोचना चाहिए कि यदि वास्तव में राजभाषा हिंदी की प्रगति करनी है तो मूल्यांकन और प्रोत्साहन का कोई अलग व्यावहारिक पैमाना तैयार किया जाए।
अंत में इतना ही कहना चाहूंगा कि आंकडों की बाज़ीगरी से किसी का भला नहीं हुआ है, कुछ लोगों को सैर-सपाटे का मौका भले ही मिल जाए।
हिंदी की प्रगति के लिए गहरी भावना की ज़रूरत है, जो इन आंकड़ेबाज़ों में नहीं होती, सोम ठाकुर जी की भाषा वंदना में है, जो मैं यहाँ दे रहा हूँ-
भाषा वंदना
करते हैं तन मन से वंदन, जन गण मन की अभिलाषा का,
अभिनंदन अपनी संस्कृति का, आराधन अपनी भाषा का।
ये अपनी सत्य सर्जना के, माथे की है चंदन-रोली,
मां के आंचल की छाया में, हमने जो सीखी है बोली,
ये अपनी बंधी हुई अंजुरी, ये अपने गंधित शब्द-सुमन,
यह पूजन अपनी संस्कृति का, ये अर्चन अपनी भाषा का।
अपने रत्नाकर के रहते, किसकी धारा के बीच बहें,
हम इतने निर्धन नहीं कि वाणी से औरों के ऋणी रहें।
इसमें प्रतिबिंबित है अतीत, आकार ले रहा वर्तमान,
ये दर्शन अपनी संस्कृति का, ये दर्पण अपनी भाषा का।
यह ऊंचाई है तुलसी की, यह सूर सिंधु की गहराई,
टंकार चंद्रबरदाई की, यह विद्यापति की पुरवाई,
जयशंकर का जयकार, निराला का यह अपराजेय ओज,
यह गर्जन अपनी संस्कृति का, यह गुंजन अपनी भाषा का।
करते हैं तन मन से वंदन, जन गण मन की अभिलाषा का,
अभिनंदन अपनी संस्कृति का, आराधन अपनी भाषा का।
नमस्कार।
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