संक्रमण काल है, सामान जा चुका, अब अपने जाने की बारी है। ऐसे में भी मौका मिलने पर बात तो की जा सकती है। समय है गुड़गांव से गोआ शिफ्ट होने का, गुड़गांव के साथ 7 वर्ष तक पहचान जुड़ी रही, अब गोआ अपना ठिकाना होगा।
आज मन हो रहा है कि एक बार फिर से निगाह डाल लें, उस ठिकाने पर जहाँ कभी एकदम शुरू में मेरा बसेरा रहा। भोला नाथ नगर, जहाँ रहकर शिक्षा प्रारंभ होने से लेकर दो प्रायवेट नौकरियां और उद्योग भवन में सरकारी नौकरी भी की और वहाँ से प्रतिनियुक्ति पर संसदीय राजभाषा समिति में भी रहा।
अपने मोहल्ले में मैंने एक मुल्तानी बाबाजी का ज़िक्र किया था, जो घर के सामने ही रहते थे, ज्योतिषी भी थे, अपने कमरे में सुई धागे से लेकर सब कुछ रखते थे, बोलते थे कि वे किसी पर निर्भर नहीं हैं, उनका परिवार पीछे की तरफ रहता था, लेकिन उनकी बात अपने परिवार वालों के मुकाबले, बाहर वालों से ज्यादा होती थी। हाँ उनका नाम मुझे उस समय याद नहीं आया था, उनका नाम था- श्री ठाकुर दास जी।
दिल्ली की कुछ महत्वपूर्ण घटनाओं में, डॉ. हरिवंश राय बच्चन जी को आकाशवाणी में इंटरव्यू के लिए, अगवानी करके लाना और इंटरव्यू के समय आकाशवाणी के स्टूडियो में उनके साथ रहना, संजय गांधी की मृत्यु पर श्रीमती इंदिरा गांधी के बंगले पर जाना, क्योंकि वह संसदीय राजभाषा समिति के हमारे कार्यालय के पास ही था, और यह कि वहाँ मनोज कुमार आए और मुझको लगभग धकेलते हुए अंदर चले गए।
एक घटना और याद आ रही है, आपात्काल के संघर्ष के बाद, जब मोरारजी भाई के नेतृत्व में जनता दल की सरकार बनने वाली थी और जॉर्ज फर्नांडीज़ सरकार में शामिल होने से इंकार कर रहे थे। उस समय एक शाम की घटना है, जब दिल्ली में कांस्टीट्यूशन क्लब के निकट, सड़क पर ही भारी भीड़ ने उनको घेर लिया था, ‘जॉर्ज आपको मंत्री बनना ही होगा’ लगातार यह आग्रह करते हुए और आखिर में जॉर्ज फर्नांडीज़ को इसके लिए मना ही लिया था कि वे मंत्री बनेंगे। मैं भी उस भीड़ का हिस्सा था।
बाद में तो मंत्री बनने के बाद जॉर्ज का कार्यालय उद्योग भवन के उसी कमरे के ऊपर था, जिसमें स्थापना-3 अनुभाग में, मैं तैनात था।
जयप्रकाश जी का आंदोलन एक पवित्र आंदोलन था लेकिन कितनी अज़ीब बात है कि लालू प्रसाद यादव भी इसी आंदोलन की उपज थे। शायद यही कारण है कि इस आंदोलन के परिणाम उतने क्रांतिकारी नहीं रहे, जैसे होने चाहिए थे। हर जगह अपने कैरियर की प्लानिंग के साथ चलने वाले लोग भी शामिल होते हैं, जैसे कि अन्ना हजारे जी के आंदोलन में भी थे, बल्कि अन्ना को तो राष्ट्रीय मंच पर ही ऐसे लोग लेकर आए थे, जिनके मन में प्रारंभ से ही अपने कैरियर का रोड-मैप तैयार था, भले ही वे दिखा यही रहे हों कि वे भी अन्ना की तरह, निःस्वार्थ भाव से भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई लड़ रहे हैं।
खैर, यह दिल्ली की महानगरी भी अजीब है जिसमें, जिसके आसपास पहले 30 वर्ष और फिर से 7 वर्ष रहने का अवसर मिला, अब फिर से अपने सपनों की उस माया-नगरी के अपेक्षाकृत नज़दीक़ रहने का अवसर मिल रहा है, जहाँ पहले एक वर्ष और फिर एक बार 3 महीने रहा था, याने मुंबई के पास, गोआ में।
संभव है फिर से कभी इधर आना हो, आस तो नहीं खोनी चाहिए या फिर वहाँ ऐसा लगे कि इधर आने का मन ही न हो, ज़िंदगी के स्पेस की भी तो लिमिट है न!
हिंदी कवियों में एक तो भवानी दादा थे, जो बातचीत के अंदाज़ में कविता पाठ करते थे, एक और थे- डॉ. बाल स्वरूप राही, वे हमेशा मुस्कुराते रहते थे और बात करने के अंदाज़ में कविता पाठ करते थे, उनका एक गीत आज प्रस्तुत कर रहा हूँ-
इस तरह तो दर्द घट सकता नहीं
इस तरह तो वक्त कट सकता नहीं
आस्तीनों से न आंसू पोंछिये
और ही तदबीर कोई सोचिये।
यह अकेलापन, अंधेरा, यह उदासी, यह घुटन
द्वार तो है बंद, भीतर किस तरह झांके किरण।
बंद दरवाजे ज़रा से खोलिये
रोशनी के साथ हंसिए बोलिये
मौन पीले–पात सा झर जाएगा
तो हृदय का घाव खुद भर जाएगा।
एक सीढ़ी हृदय में भी, महज़ घर में ही नही
सर्जना के दूत आते हैं सभी हो कर वहीं।
यह अहम की श्रृंखलाएं तोड़िये
और कुछ नाता गली से जोड़िये
जब सड़क का शोर भीतर आएगा
तब अकेलापन स्वयं मर जायगा।
आइये कुछ रोज कोलाहल भरा जीवन जियें
अँजुरी भर दूसरों के दर्द का अमृत पियें।
आइये बातून अफवाहें सुनें
फिर अनागत के नये सपने बुनें
यह सलेटी कोहरा छंट जाएगा
तो हृदय का दुख खुद घट जाएगा।
-डॉ. बालस्वरूप राही
फिर मिलेंगे, नमस्कार।
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