46. हर-एक कदम पे तलाशा किया रक़ीब नए,  मेरा खयाल है आईने पर गया हूँ मैं। 

काफी लंबा अंतराल हो गया इस बार।

इस बीच 3 जुलाई को हम गुड़गांव छोड़कर गोआ में आ बसे। यह हमारा नया ठिकाना है और मुझे अभी तक भ्रम रहता है कि ‘गोआ’  लिखूं या ‘गोवा’।

खैर, यह बता दूं कि गुड़गांव छोड़ने से पहले मेरे लैपटॉप ने हल्का सा स्नान कर लिया था, चुल्लू भर पानी चला गया था उसके अंदर, समय नहीं था वहाँ पर, वरना मेरा बेटा नेहरू प्लेस से ठीक करा लाता। वहाँ अच्छे-अच्छे बिगड़े हुए ठीक हो जाते हैं (लैपटॉप), उस जगह का नाम, नेहरू जी के साथ ऐसे ही नहीं जुड़ गया है। यहाँ गोआ का नेहरू प्लेस कहाँ है, है भी या नहीं, ये धीरे-धीरे पता चलेगा। एक ने कुछ दिन अपने पास रखा, फिर वापस कर दिया, कहा कि पार्ट नहीं मिल रहा है और अब जीएसटी के कारण मिलेगा भी नहीं। ये वह बात है जो उन सज्जन ने बताई, जो लैपटॉप ठीक नहीं कर पाए।

इस बीच मेरे लिए नए लैपटॉप का प्रबंध कर दिया गया, अब मैं तो कुछ करता नहीं हूँ। जो गपशप करनी आती है, ज्ञान बांटने का शौक है, वही पूरा कर रहा हूँ।

मैं ब्लॉग पहले ‘वर्ड फाइल’ में लिखता हूँ और उसके बाद यहाँ पेस्ट करता हूँ, नए लैपी में अभी एमएस वर्ड लोड नहीं है, सो पहली बार डायरेक्ट यहाँ लिखने की कोशिश कर रहा हूँ।

पहले लगातार इतने दिनों तक ब्लॉग लिखे कि पढ़ने वाले भी थक गए होंगे, अभी जब इतना लंबा अंतराल आया तब यह देखकर अच्छा लगा कि काफी दिनों के बाद भी कुछ नए लोग मेरे ब्लॉग्स को फॉलो करना शुरू कर रहे हैं। ऐसे में और ज़रूरी लगने लगता है कि कुछ न कुछ तो शेयर किया जाए।

इससे पहले गोआ में कभी टूरिस्ट के रूप में नहीं आया और अब देखना कि टूरिस्ट यहाँ पर क्या देखते हैं! इस बीच दो-तीन ‘बीच’  देखीं, एक तो एरियल डिस्टेंस की दृष्टि से घर के बहुत पास है, लेकिन उतार और चढ़ाई इतनी अधिक है कि अपने स्वभाव के अनुसार एक बार पैदल चला गया और फिर वापस भगवान के किसी दूत को ही अपनी गाड़ी में लाना पड़ा, क्योंकि बारिश भी आ गई थी, जो आजकल कब आ जाए पता नहीं चलता।

खैर आज लंबी बात नहीं करूंगा। यह आश्वासन या धमकी नहीं दूंगा कि अब से रोज़ लिखूंगा, लेकिन शायद इतना लंबा अंतराल भी नहीं आने दूंगा।

पता नहीं क्यों, सूर्यभानु गुप्त जी की दो-तीन गज़लें कुछ दिन से ज़ुबान पर आ रही हैं, कुछ शेर जो याद हैं,  आज शेयर कर रहा हूँ-

 

जब अपनी प्यास के सहरा से डर गया हूँ मैं, 

नदी में बांध के पत्थर उतर गया हूँ मै। 

मेरे लहू में किसी बुत-तराश का घर है, 

जिधर बनी हैं चट्टानें, उधर गया हूँ मैं। 

हर-एक कदम पे तलाशा किया रक़ीब नए, 

मेरा खयाल है आईने पर गया हूँ मैं। 

तेरा बदन जो उठा ज़ेहन में हवा होकर, 

रुई की तरह हवा में बिखर गया हूँ मैं। 

एक अच्छा शेर कह के मुझको ये महसूस हुआ, 

बहुत दिनों के लिए फिर से मर गया हूँ मैं। 

आज के लिए इतना ही, नमस्कार।

*****

 

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