कोई तो आसपास हो, होश-ओ-हवास में

जब ब्लॉग लिखना शुरू किया था तो यह विचार किया था कि इसमें दलगत राजनीति के बारे में कुछ नहीं लिखूंगा। वैसी कोई बात लिखनी हो तो कहीं और लिख सकता हूँ।

लेकिन जैसे राजनीति में कुछ भी स्थायी नहीं होता, उसी तरह उसके विमर्श का भी कोई स्थाई तरीका या ठिकाना ज़रूरी नहीं है।

कुछ कैरेक्टर लगातार प्रेरित करते हैं कि राजनीति या इसके चरित्रों के बारे में टिप्पणी की जाए। जैसे जब मैं राज्यसभा की कार्यवाही देखता हूँ तो पाता हूँ कि कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं श्री गुलाम नबी आज़ाद एवं श्री आनंद शर्मा के ठीक पीछे एक बुज़ुर्ग सज्जन बैठते हैं, उनके बुज़ुर्ग स्वरूप को देखते हुए कुछ आदर का भाव भी आता है, लेकिन शायद उनको कोई गंभीर मैडिकल प्रॉब्लम है, वो ज्यादा देर तक कुर्सी पर नहीं बैठ पाते। अचानक हम देखते हैं कि वे कुर्सी छोड़कर सदन के ‘वेल’ में, उपसभापति महोदय के आसन के सामने पहुंच गए हैं और नारे लगाने लगे हैं। और भी लोग होते हैं उनके साथ लेकिन वे क्योंकि अपनी आयु के लिहाज़ से आदरणीय जैसे लगते हैं, इसलिए उनका ज़िक्र किया। ऐसे लोग वैसे जनता के बीच जाकर कोई चुनाव तो नहीं जीत सकते, क्योंकि ऐसा करेंगे तो जनता उनको, उनकी सही जगह, कुंए में पहुंचा देगी।

अब  जबकि परम आदरणीय श्री लालू प्रसाद यादव जी के परिवार  का हर लायक-नालायक सदस्य करोड़पति हो गया है, अगर यह देखते हुए कोई कहे कि लालू जी आप चोर हैंं, तो इसमेंं तो कोई दलगत राजनीति नहीं होगी। इसी शृंंखला मेें अगर आदरणीया बहन मायावती जी का नाम भी ले लिया जाए तो! वैसे और भी बहुत से लोग होंगे, जिनसे कहा जा सकता हैै कि राजनीति आपकी अपनी जगह है, लेकिन भ्रष्टाचार नहीं चलेगा।

हमने देखा है कि श्री बालकवि बैरागी जी लंबे समय से राजनीति में रहे हैं, संसदीय राजभाषा समिति में भी रहे, उनको हमने  कोई छोटी हरकत करते नहीं देखा, राजनीति की शुचिता को उन्होंने बनाये रखा है। ऐसे बहुत से निर्वाचित और मनोनीत साहित्यकार राजनीति से जुड़े रहे हैं, जिन्होंने राजनीति को शुचिता का एक पैमाना दिया है।

श्री बालकवि बैरागी ने अपनी एक कविता में लिखा भी है-

एक और आशीष दो मुझको, मांगी या अनमांगी,

राजनीति के राजरोग से मरे नहीं बैरागी। 

एक कवि हैं श्री संपत सरल, कवि क्या गद्य में व्यंग्य पढ़ते हैं वे, मैंने भी  उनको बुलाया है एक बार अपने आयोजन में, अभी जैसा उभरकर आ रहा है, वे भी अवार्ड वापसी गैंग के सदस्य लगते हैं। व्यंग्य का एक मुहावरा है जिसको अगर आपने साध लिया है तो आप काफी समय तक तालियां बजवा सकते हैं, लेकिन अंततः ईमानदारी  ही काम आती है। मुझे लगता है कि श्री संपत सरल को कविता की ईमानदारी के बारे में सोचना चाहिए,  मुझे श्री रमेश रंजक जी की पंक्तियां फिर से याद आ रही हैं-

वक्त तलाशी लेगा, वो भी चढ़े बुढ़ापे में,

संभलकर चल, 

वो जो आयेंगे, छानेंगे, कपड़े बदल-बदल

संभलकर चल, 

वैसे अब क्या कहा जाए, पाकिस्तान में भी ‘शरीफ’ का ज़माना नहीं रहा।

राजनीतिज्ञ अपनी ही अलग दुनिया में रहते हैं, चमचों की जयकार के बीच उनको यह एहसास ही नहीं रहता कि उनके पैरों के नीचे ज़मीन है भी या नहीं।

अंत में मुझे अपनी लिखी हुई पंक्तियां याद आ रही हैं-

वे खुद बने हैं रोशनी, लिपटे कपास में, 

कैसे अजीब भ्रम पले दिन के उजास में।

कुछ अपनी बदहवासियां उनको पता चलें, 

कोई तो आसपास हो होश-ओ-हवास में। 

नमस्कार।

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