69. अब जागना होगा हमें कब तक बता आवारगी !

पिछले ब्लॉग में मैंने, टीवी में जो ‘टेलेंट शो’ चलते हैं, उनके बारे में बात की थी।

अब फिर से लौटकर आवारगी पर आता हूँ, आवारगी की बात मैंने एक ब्लॉग में की और कहा कि आगे भी इस विषय में बात करूंगा, मुझे लगता कुछ और नामों को आवारगी के दायरे में डाल सकते हैं, जिनमें से एक शब्द ‘फकीरी’ भी है।

नीरज जी ने भी कहा है-

चल घाट पे औघड़ बैठ जरा, क्या रक्खा आलमगीरी में,

जो मिलता मज़ा फक़ीरी में, वो मिलता कहाँ अमीरी में।

राजकपूर की फिल्म में, हसरत जयपुरी जी ने तो बाकायदा आवारगी का पैमाना ही तय कर दिया-

घर-बार नहीं, संसार नहीं, मुझसे किसी को प्यार नहीं,

उस पार किसी से मिलने का इक़रार नहीं,

सुनसान नगर, अनजान डगर का प्यारा हूँ।

इसके बाद देखिए और भी कठिन परीक्षा है-

आबाद नहीं, बरबाद नहीं,

गाता हूँ खुशी के गीत मगर

ज़ख्मों से भरा सीना है मेरा

हंसती है मगर ये मस्त नज़र,

इस दुनिया में तेरे तीर का

या तक़दीर का मारा हूँ।

आवारा हूँ।

आवारगी का ये शंखनाद, उस ज़माने में भाषा की दीवारें फांदता हुआ, रूस तक चला गया था।

महाकवि निराला जी भी फक्कड़पन या कहें कि आवारगी का आचरण करते थे। किसी भिखारी को सर्दी में ठिठुरते देखा तो अपनी नई शॉल उतारकर उसे दे दी। कहीं किसी आयोजक ने उनको दस हजार रुपये देने का वादा किया, इंतज़ाम नहीं कर सका, निराला जी के क्रोध के बारे में भी उसको पता था, किसी ने बताया कि दस हजार गुलाब के फूल टोकरी में भरकर दे देना और पैर पकड़ लेना, उसने ऐसा ही किया, निराला जी ने पूछा पूरे दस हजार हैं न? और फूल चारों तरफ बिखेर दिए।

आवारगी के ये दो प्रसंग, जो सुने-पढ़े थे और अचानक याद आ गए, मैंने शेयर कर लिए।

डॉ. धर्मवीर भारती कि एक कविता याद आ रही है, वहाँ आवारगी इस अर्थ में नहीं है, वो मिशन नहीं मज़बूरी है-

सूनी सड़कों पर ये आवारा पांव,

माथे पर टूटे नक्षत्रों की छांव

कब तक, आखिर कब तक!

चिंतित पेशानी पर अस्त-व्यस्त बाल,

पूरब, पश्चिम, उत्तर दक्षिण भूचाल,

कब तक, आखिर कब तक!

अब यह विषय ही ऐसा है कि जब लगता है –अभी बहुत कुछ कहना है, तभी मालूम होता है इतना लंबा पढ़ेगा कौन!

आखिर में गुलाम अली जी की गाई प्रसिद्ध गज़ल के कुछ शेर छोड़ देता हूँ-

ये दर्द की तनहाइयां, ये दश्त का वीरां सफर,

हम लोग तो उकता गए, अपनी सुना आवारगी।

एक अजनबी झोंके ने जब पूछा मेरे गम का सबब,

सहरा की भीगी रेत पर, मैंने लिखा आवारगी।

ले अब तो दश्त-ए-शब की सारी वुस-अतें सोने लगीं,

अब जागना होगा हमें, कब तक बता आवारगी।

नमस्कार।

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