जगजीत सिंह जी की गाई, शायर शहीद कबीर की इस गज़ल के बहाने आज बात शुरू करेंगे-
ठुकराओ अब कि प्यार करो, मैं नशे में हूँ
जो चाहो मेरे यार करो, मैं नशे में हूँ।
गिरने दो तुम मुझे, मेरा सागर संभाल लो,
इतना तो मेरे यार करो, मैं नशे में हूँ।
अब भी दिला रहा हूँ, यक़ीन-ए-वफा मगर,
मेरा न ऐतबार करो, मैं नशे में हूँ।
वैसे देखा जाए तो प्रेम करने के लिए होश में होना ज़रूरी नहीं है, इसलिए जो वफा का यक़ीन नशे में दिलाया जा रहा है, वह शायद ज्यादा कारगर हो, हाँ व्यापार करने के लिए होश में होना बहुत ज़रूरी है।
इसीलिए तो इस गज़ल में धर्म गुरुओं, उपदेशकों से यह भी कहा गया है-
मुझको कदम-कदम पे भटकने दो वाइज़ो
तुम अपना कारोबार करो, मैं नशे में हूँ।
एक और गज़ल में, यह भी कहा गया है-
होश वालों को खबर क्या, बेखुदी क्या चीज़ है,
इश्क़ कीजे, फिर समझिए, ज़िंदगी क्या चीज़ है।
और फिर इस दुनिया के नियमों के बारे में उस्ताद गुलाम अली जी ने क्या कहा है (मतलब गाया है)-
मयनोशी के आदाब से आगाह से, आगाह नहीं तू,
जिस तरह कहे साक़ी-ए-मैखाना पिए जा।
और फिर अकबर इलाहाबादी जी की, हंगामा बरपा वाली गज़ल में-
हर ज़र्रा चमकता है अनवार-ए-इलाही से,
हर सांस ये कहती है, हम हैं तो खुदा भी है।
नातज़ुर्बाकारी से, वाइज़ की ये बातें हैं,
इस रंग को क्या जाने, पूछो जो कभी पी है।
आखिर में मुकेश जी की टिप्पणी-
है ज़रा सी बात और छलके हैं कुछ प्याले,
पर न जाने क्या कहेंगे ये जहाँ वाले,
तुम बस इतना याद रखना
मैं नशे में हूँ।
वैसे नशे के बारे में ऐसी दलीलें देने के लिए तो शायद होश में रहना ज़रूरी है, और ये दलीलें कितनी लंबी चल सकती हैं, इसकी कोई सीमा नहीं है।
मैंने ऐसी कोई कसम भी तो नहीं खाई थी कि हमेशा होश की ही बात करुंगा।
नमस्कार।
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