85. ये दिल्ली है बाबू!

दिल्ली में मेरा जन्म हुआ, 30 वर्ष की आयु तक मैं दिल्ली में ही रहा, शुरू की 2-3 नौकरियां भी वहीं कीं और सेवानिवृत्ति के बाद भी लगभग 7 वर्ष तक, दिल्ली के पास गुड़गांव में रहा। इसलिए कह सकता हूँ कि दिल्ली को काफी हद तक जानता हूँ, और मैंने दिल्ली के अपने अनुभव शुरू के ब्लॉग्स में लिखे भी हैं।

दिल्ली देश की राजधानी है, राजनीति का केंद्र है, हर जगह के लोग दिल्ली में आपको मिल जाएंगे। बड़ी संख्या में ऐसे लोग वहाँ हैं जो अध्ययन के लिए या सेवा के लिए दिल्ली अथवा राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में रहते हैं, क्योंकि उन सबको बसाने और नियोजित करने के लिए, दिल्ली का मूल क्षेत्र अब बहुत छोटा पड़ गया है। यह भी कि दिल्ली में जितने सड़क के पुल और फ्लाई-ओवर बन रहे हैं, उतना ही ट्रैफिक जाम बढ़ता जाता है।

एक बात और कि अक्सर किसी स्थान की अपनी पहचान, अपनी संस्कृति होती है, लेकिन दिल्ली एक संस्कृति विहीन नगर है। वहाँ पर जहाँ अनेक संस्थानों के राष्ट्रीय कार्यालय अथवा केंद्र हैं, बहुत से अंतर्राष्ट्रीय केंद्र भी हैं, वहीं लूट के बहुत से अंतर्राष्ट्रीय स्तर के केंद्र भी हैं, वहाँ रहते हुए बहुत सी बार ऐसा महसूस किया, आज सोचा कि इस बारे में लिख भी दूं, कुछ फर्क पड़ेगा कि नहीं, पता नहीं, लेकिन आज मन हो रहा है कि इस विषय में लिखूं। वैसे ये बात अगर बहुत से लोगों के माध्यम से सही जगह तक पहुंचे तो सुधार हो भी सकता है।

एक उदाहरण मैंने अपने शुरू के ब्लॉग्स में दिया था, दिल्ली में कटरा नील के पास एक अहाता या छत्ता थ, ‘मोहम्मद दीन’ नाम से, जहाँ मैं उस समय पीतांबर बुक डिपो में पहली नौकरी करता था। हमारे बगल में ही एक कपड़े की दुकान थी जहाँ लंबा टीका लगाकर एजेंट लोग ग्राहक फंसाते थे, लगते थे जैसे शिष्टाचार की मूर्ति हैं, बोलते थे कि आज ही कपड़ा आया है, विदेश भेजने वाले थे, लेकिन कुछ पीस यहाँ के लिए रखे हैं, ए-वन माल है। खैर जैसे भी हो वे ग्राहक को पटाकर माल ठिकाने लगा देते थे। अगर इत्तफाक़ से ग्राहक ‘लोकल’ हुआ तो यह तय था कि कपड़ा बेकार निकलेगा और वह वापस आएगा, इस बार उनका स्वरूप एकदम अलग होता था, वे उसको पहचानते भी नहीं थे और ये साबित कर देते थे कि सभ्यता और शिष्टाचार उनके पास से भी होकर नहीं गुज़रे हैं।

खैर यह एक दुकान की बात मैंने की, क्योंकि उसको निकट से देखा था, मैं समझता हूँ कि उस इलाके में हजारों दुकानें ऐसी होंगी और अन्य बाज़ारों में भी होंगी।

अब एक उदाहरण देता हूँ, जब मैं सेवाकाल में दिल्ली से बाहर रहने लगा था। एक बार हम बाहर से नई दिल्ली स्टेशन आए, हमें एक दिन दिल्ली में रुककर कहीं जाना था। नई दिल्ली स्टेशन के बाहर ही पहाड़ गंज की तरफ एक दुकान थी, टूरिस्ट सेंटर शायद नाम रहा होगा, बताया कि सरकारी है। हम सुबह 9 बजे करीब पहुंचे थे, हमने बताया कि एक दिन के लिए होटल चाहिए, अगले दिन हमें बाहर जाना है, उसने हमारी पर्ची काट दी पैसे लेकर और बताया कि करोल बाग के इस होटल में आपके कल तक रुकने की व्यवस्था हो गई है। हम करीब 10 बजे होटल पहुंचे, नहाकर तैयार हुए और 12 बजे के बाद भोजन के लिए बोला, तब होटल वालों ने बताया कि आपका एक दिन पूरा हो चुका है, अब अगले दिन का किराया दीजिए, तब आप और रुक पाएंगे। इसके बाद क्या कुछ हुआ, वह महत्वपूर्ण नहीं है, बस इन लोगों के घटियापन की तरफ मैं इशारा कर रहा था।

इतना ही नहीं रेलवे स्टेशन के पास अथवा कश्मीरी गेट बस अड्डे पर लोग खाने की दुकानों पर किस तरह ठगते हैं, यह कल्पना से परे है, आईएसबीटी की एक घटना याद आ रही है, मैंने दाम पूछकर छोले भटूरे लिए, उसने साथ में कुछ दही मिला पानी, उसने उसको रायता बताया और कहा यह लीजिए, प्याज को सलाद बताकर दिया और बाद में- रायता, सलाद, अचार वगैरह के अलग से दाम जोड़कर, मूल दाम के दो-गुने से भी ज्यादा की वसूली कर ली, क्योंकि असभ्यता में उसका मुकाबला करने की मेरी हिम्मत नहीं थी।

ऐसे उदाहरण अनेक मिल जाएंगे, मुंबई में चौपाटी पर भी बहुत से लोग, जैसे बंदूक से गुब्बारे फुड़वाने वाले, पहले बताएंगे 5 रुपये प्रति राउंड, आपसे कहेंगे कि राउंड तो पूरा कर लो और फिर 100 रुपये का हिसाब बना देंगे।

मैंने जो घटनाएं बताईं वे बहुत पुरानी हैं, क्योंकि बाद में तो मैं इतना समझ गया था कि कहाँ और कौन लोग ऐसा जाल बिछाते हैं। लेकिन मैं समझता हूँ कि हमारी यह ज़िम्मेदारी  है कि ऐसा माहौल बनाएं कि नए, भोले-भाले लोग, ऐसे लोगों के जाल में न फंस पाएं।

समय के साथ इतना तो हुआ है कि लोग बात उठाते हैं, प्राधिकारियों के सामने, पोर्टल पर, इंटरनेट के माध्यम से, तो फर्क पड़ता है। बस यही मन हुआ कि शहर में आने वाले लोगों के साथ धोखा बंद हो, इसके लिए आज मैंने बात उठाई, जिन लोगों की जानकारी में ऐसी घटनाएं आएं वे उनको सही जगह पर उठाएं जिससे दिल्ली का यह संस्कृतिविहीन नगर, संस्कारविहीन भी सिद्ध न हो।    

नमस्कार।

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