लीजिए पुरानी कहानी का एक पन्ना और खोल रहा हूँ।
जीवन में कोई कालखंड ऐसा होता है, कि उसमें से किस घटना को पहले संजो लें, समझ में नहीं आता है। अब उस समय को याद कर लेते हैं जब सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार और नाइंसाफी के विरुद्ध जयप्रकाश नारायण जी ने ‘संपूर्ण क्रांति’ आंदोलन चलाया हुआ था। इस आंदोलन ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया था। सभी विपक्षी पार्टियां जेपी के पीछे लामबंद हो गई थीं। जयप्रकाश जी के कुछ भाषण सुनने का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ। वे इस प्रकार संबोधित करते थे, जैसे घर का कोई बुज़ुर्ग परिवार को समझाता है। जेपी जनता से यही बोलते थे कि कहीं भी कुछ गलत होता देखते हो तो उसका विरोध करो, और कुछ न कर पाओ तो टोको ज़रूर।
उस समय श्रीमती इंदिरा गांधी की लोकप्रियता उतार पर थी और वो किसी भी तरह सत्ता पर कब्ज़ा बनाए रखना चाहती थीं। पार्टी के बड़े से बड़े नेता को एक ही तरह की बातें कहने का अधिकार था- ‘इंदिरा इज़ इंडिया, इंडिया इज़ इंदिरा’।
स्थितियां हाथ से निकलते हुए देखकर श्रीमती इंदिरा गांधी ने जून, 1975 में देश में आपातकाल लगा दिया था, प्रमुख विपक्षी नेताओं को जेल में बंद कर दिया था और सामान्य नागरिक अधिकारों को नियंत्रित कर दिया था।
पूरे देश में उस समय एक ही नारा गूंज रहा था-
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है
मैं उन दिनों सारिका पत्रिका नियमित रूप से पढ़ता था, वैसे तो यह कहानियों की पत्रिका थी और बहुत श्रेष्ठ पत्रिका थी। जेपी आंदोलन का प्रभाव सारिका में, कमलेश्वर जी द्वारा लिखित संपादकीय लेखों में भी देखा जा सकता था। सारिका में उन दिनों दुष्यंत कुमार जी की आंदोलनधर्मी गज़लें भी नियमित रूप से छपती थीं। इन्हीं में से एक थी-
आज गुड़िया की कई कठपुतलियों में जान है,
एक शायर ये तमाशा देखकर हैरान है।
कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए,
मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिंदुस्तान है।
एक बूढ़ा आदमी है देश में या यूं कहें,
इस अंधेरी कोठरी में एक रोशनदान है।
उनकी एक और प्रसिद्ध गज़ल के कुछ शेर हैं-
कहाँ तो तय था चरांगा, हरेक घर के लिए
कहाँ चराग मयस्सर नहीं शहर के लिए।
यहाँ दरख्तों के साये में धूप लगती है,
चलें यहाँ से कहीं और उम्र भर के लिए।
बाद में दुश्यंत जी की ये गज़लें, ‘साये में धूप’ नाम से संकलन के रूप में प्रकाशित हुईं।
प्रगतिशील लेखक सम्मेलन की अनेक बैठकों में मैंने भाग लिया था, सामान्यतः ये बैठकें दिल्ली विश्वविद्यालय में कहीं होती थीं और इनमें काफी बहादुरी भरी बातें होती थीं। आपातकाल में ऐसी ही बैठक दिल्ली में मंडी हाउस के पास स्थित कम्युनिस्ट पार्टी के मुख्यालय में हुई और मैंने देखा कि इस बैठक में सभी बहादुरों ने किसी न किसी बहाने से आपातकाल का समर्थन किया।
इस बैठक के अनुभव से प्रभावित होकर मैंने ये कविता लिखी थी-
सन्नाटा शहर में
बेहद ठंडा है शहरी मरुथल
लो अब हम इसको गरमाएंगे,
तोड़ेंगे जमा हुआ सन्नाटा
भौंकेंगे, रैंकेंगे, गाएंगे।
दड़बे में कुछ सुधार होना है,
हमको ही सूत्रधार होना है,
ये जो हम बुनकर फैलाते हैं,
अपनी सरकार का बिछौना है।
चिंतन सन्नाटा गहराता है,
शब्द वमन से उसको ढाएंगे।
तोड़ेंगे जमा हुआ सन्नाटा
भौंकेंगे, रैंकेंगे, गाएंगे।
परख राजपुत्रों की थाती है,
कविता उस से छनकर आती है,
ऊंची हैं अब जो भी आवाज़ें,
सारी की सारी बाराती हैं,
अपनी प्रतिभा के चकमक टुकड़े
नगर कोतवाल को दिखाएंगे।
तोड़ेंगे जमा हुआ सन्नाटा
भौंकेंगे, रैंकेंगे, गाएंगे।
खैर वो अंधकार की घोर निशा भी समाप्त हुई और समय इतना बदला कि भ्रष्टाचार विरोध के उस आंदोलन से निकले लालू प्रसाद यादव, आज भ्रष्टाचार की सबसे बड़ी मिसाल बन चुके हैं।
आज के लिए इतना ही, आगे भी तो बात करनी है।
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