आज दुष्यंत कुमार जी की एक गज़ल के बहाने बात करते हैं।
लगभग एक वर्ष हो गया मुझे ब्लॉग लिखते हुए, जब शुरू किया था तब मूलतः फेसबुक, ट्विटर पर निर्भर था, अब ब्लॉग लिखने वाले समुदाय के बहुत से लोग जुड़ गए हैं, ये देखकर अच्छा लगता है। कभी-कभी यह भी देखता हूँ कि पढ़ने वाले यद्यपि बहुत ज्यादा नहीं हैं, लेकिन दुनिया के हर महाद्वीप में किसी दिन ब्लॉग पढ़ लिया जाता है, ऐसे देशों में भी, जिनका मैंने केवल नाम सुना है।
खैर, यह बात ऐसे ही ध्यान में आ गई, जैसे देश से पैसा गबन करके लोग ‘जाने चले जाते हैं कहाँ! बहुत से परिवर्तन हुए हैं और हो रहे हैं। जनता पूरी तरह दो धड़ों में बंट गई है, विशेष रूप से स्वयं को सोशल मीडिया पर अभिव्यक्त करने वाली जनता!
यहाँ तक कि देश का पैसा लेकर भागने, और फिर धमकी देने वालों को, जिन लोगों ने भरपूर पैसा दिया, उनकी सिफारिशें कीं, उनसे कुछ लोगों को शिकायत नहीं होती, वे तो बस ‘चौकीदार’ के कान पकड़ना चाहते हैं!
छोड़िए जी, ये मेरा क्षेत्र नहीं है, आप दुष्यंत कुमार जी की यह गज़ल पढ़िए-
ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दोहरा हुआ होगा
मैं सज्दे में नहीं था आप को धोखा हुआ होगा ।
यहाँ तक आते आते सूख जाती है कई नदियाँ
मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा।
ग़ज़ब ये है की अपनी मौत की आहट नहीं सुनते
वो सब के सब परेशाँ हैं वहाँ पर क्या हुआ होगा।
तुम्हारे शहर में ये शोर सुन सुन कर तो लगता है
कि इंसानों के जंगल में कोई हाँका हुआ होगा।
कई फ़ाक़े बिता कर मर गया जो उस के बारे में
वो सब कहते हैं अब ऐसा नहीं ऐसा हुआ होगा।
यहाँ तो सिर्फ़ गूँगे और बहरे लोग बस्ते हैं
ख़ुदा जाने यहाँ पर किस तरह जलसा हुआ होगा ।
चलो अब यादगारों की अँधेरी कोठरी खोलें
कम-अज़-कम एक वो चेहरा तो पहचाना हुआ होगा।
नमस्कार।
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