40. मालूम क्या किसी को, दर्द-ए-निहां हमारा!

यादों के समुंदर में एक और डुबकी , लीजिए प्रस्तुत है एक और पुराना ब्लॉग!
पता नहीं क्या सोचकर यह ब्लॉग लिखने की शुरुआत की थी। और इसको शेयर करता हूँ ट्विटर पर, फेसबुक पर!
जैसे गब्बर सिंह ने सवाल पूछा था, क्या सोचा था सरदार बहुत खुश होगा, शाबाशी देगा! यहाँ पर सरदार कौन है!
यह बहस तो शुरू से चली आ रही है कि कुछ भी लिखने से कुछ फर्क पड़ता है क्या? खास तौर पर उसको ट्विटर और फेसबुक पर शेयर करने से। यहाँ सबकी अपनी-अपनी सोशल हैसियत के हिसाब से फैन-फॉलोविंग है। यहाँ क्या कोई ऐसा है, जो खुद को दूसरों से कम विद्वान मानता है? मैं तो कई बार इन प्लेटफॉर्म्स को ‘आत्ममुग्ध सभा’ के नाम से जानना पसंद करता हूँ!
वो तो पढ़े जाने के लिए कुछ पढ़ना भी पड़ता है, वरना यहाँ हर विद्वान दूसरों को शिक्षित करने के पावन उद्देश्य से ही अपना अमूल्य समय दे रहा है।
यहाँ कोई भी कोहली को खेलना और कप्तानी करना सिखा सकता है और बड़े से बड़े पॉलिटिशियन को राजनीति के दांवपेच भी बता सकता है।
ऐसी महान ऑडिएंस के बीच कभी मन होता है कि हम भी कुछ बात कहें और कुछ लोग कर्त्तव्य भावना से, कुछ विशेष लिहाज़ करते हुए पढ़ लेते हैं।
ऐसा करते-करते 39 आलेख हो गए, अपने जीवन के कुछ प्रसंगों को याद करते हुए, मुझे अचंभा हो रहा है कि मैंने 39 दिन तक लगातार यह आलेख लिखे हैं, आज चालीसवां दिन है।
मुझे एक पुराने कवि-मित्र श्री राजकुमार प्रवासी जी याद आ रहे हैं, उनकी पत्नी ने उनके एक मित्र को एक बार बताया था, “भैया पहले तो इनकी कविता थोड़ी-बहुत समझ में आती थी, अब बिल्कुल नहीं आती। लेकिन ये रात में भी कागज़-कलम साथ लेकर सोते हैं, कि पता नहीं कब सरस्वती जी दौरे पर हों और इनसे कुछ लिखवा लें।”
खैर अब इन ऊल-जलूल बातों को छोड़कर मैं उनके प्रति आभार अवश्य व्यक्त करना चाहूंगा जिन्होंने मेरे इन ब्लॉग्स को पढ़ा है और उन पर अपनी अमूल्य सम्मति दी है।

आज राज कपूर जी की फिल्म- ‘फिर सुबह होगी’  का एक खूबसूरत गीत शेयर कर रहा हूँ, जो साहिर जी ने लिखा है, मुकेश जी ने गाया है और इसका संगीत खय्याम जी ने दिया है-

चीन-ओ-अरब हमारा, हिंदोस्तां हमारा

रहने को घर नहीं है, सारा जहाँ हमारा।

खोली भी छिन गई है, बेंचें भी छिन गई हैं,

सड़कों पे घूमता है, अब कारवां हमारा।

जेबें हैं अपनी खाली, क्यों देता वरना गाली,

वो संतरी हमारा, वो पासबां हमारा।

जितनी भी बिल्डिंगें थीं, सेठों ने बांट ली हैं,

फुटपाथ बंबई के, हैं आशियां हमारा।

होने को हम कलंदर, आते हैं बोरीबंदर,

हर कुली यहाँ का, है राज़दां हमारा।

तालीम है अधूरी, मिलती नहीं मजूरी,

मालूम क्या किसी को दर्द-ए-निहां हमारा।

पतला है हाल अपना, लेकिन लहू है गाढ़ा,

फौलाद से बना है, हर नौजवां हमारा।

मिलजुलकर इस वतन को, ऐसा बनाएंगे हम,

हैरत से मुंह तकेगा, सारा जहाँ हमारा॥

(यह पुराना ब्लॉग है, लेकिन इसमें यह गीत अभी डाला गया है, क्योंकि पहले जो कविता इसमें थी, वह मैंने हाल ही में अपने ब्लॉग में पुनः लिखी थी, अतः इसका शीर्षक भी बदल गया है।)

इसी के साथ आज की कथा यहाँ संपन्न होती है।

नमस्कार।

2 responses to “40. मालूम क्या किसी को, दर्द-ए-निहां हमारा!”

  1. Nice post

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    1. Thanks dear.

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