188 . संस्मरण के बहाने मगर, याद आने से क्या फायदा!

मैंने जब ब्लॉग लिखना शुरू किया था, तब शुरू के बहुत सारे ब्लॉग अपने जीवन से जोड़कर लिखे थे, जिसमें बहुत से मित्रों और ऐसे लोगों का ज़िक्र किया था, जिनसे जीवन को दिशा मिली, प्रेरणा मिली। यह बात मैं नौकरी की गतिविधियों से अलग कह रहा हूँ, वैसे नौकरी से जुड़े बहुत से प्रसंग भी मैंने लिखे हैं।
एक बड़ी घटना या दुर्घटना, जो दिल्ली में प्रायवेट नौकरी शुरु करने के साथ हुई वह था कविता का शौक लगना। किसी समय कुछ नवगीत लिखे और विनम्रतापूर्वक कहना चाहूंगा कि नवगीत के विषय में लिखी गई कुछ पुस्तकों में भी मेरा उल्लेख आ गया, हालांकि कविताओं का प्रकाशन मैंने बहुत कम कराया, गोष्ठियों में भागीदारी ही अधिक रही।
अपने प्रेरकों, मार्गदर्शकों, प्रिय रचनाकारों के रूप में मैंने अनेक लोगों क ज़िक्र किया है, जिनमें से कुछ हैं- सर्वश्री सोम ठाकुर, स्व. भारत भूषण जी, डॉ. कुंवर बेचैन, किशन सरोज, कुबेर दत्त आदि-आदि।
एक व्यक्ति जिसका विस्तार से ज़िक्र मैं नहीं कर पाया, शायद बहुत निकट होने के कारण, वो हैं- श्री धनंजय सिंह।
एक समय था, जब मैं दिल्ली-शाहदरा के भोला नाथ नगर में रहता था और धनंजय सिंह जी भी शाहदरा में रहते थे। तब ऐसा भी होता था कि कभी बहुत लेट हो जाने पर मैं अपने घर न जा पाऊं, लेकिन धनंजय जी के घर मैं कभी भी जा सकता था। ऐसा सिर्फ मेरे लिए ही नहीं था, अपितु मेरे कई मित्र ऐसे थे, जिनमें श्री अश्विनी, सुशील कुमार सिंह आदि भी शामिल थे, जो अक्सर धनंजय जी के घर में पाए जाते थे।
श्री धनंजय जी के माध्यम से ही हमें, प्रारंभ में साहित्य जगत की अनेक हस्तियों से प्रथम परिचय का अवसर प्राप्त हुआ, नाम बहुत सारे हैं, मैं दो-तीन नाम ही लूंगा- भारत भूषण जी, डॉ. कुंवर बेचैन जी, प्रेम शर्मा जी, देवेंद्र शर्मा ‘इंद्र’ जी आदि-आदि।
आज मैं धनंजय जी के बारे में ही कुछ बातें करूंगा, अन्यथा ज्यादा लंबा हो जाएगा।
धनंजय जी के एक पुराने गीत की कुछ पंक्तियां हैं-

गीतों के मधुमय आलाप, यादों में जड़े रह गए,
बहुत दूर डूबी पदचाप, चौराहे पड़े रह गए।
तुमने दिनमानों के साथ-साथ, बदली हैं केवल तारीखें,
पर बदली घड़ियों का आचरण, हम किस महाजन से सीखें।
बिजली के खंबे से आप, एक जगह खड़े रह गए।

मुझे यह भी याद है कि धनंजय जी के घर पर श्री सोमेश्वर जी भी आते थे, जो श्रेष्ठ कहानीकार हैं, ये दोनो घनिष्ठ मित्र थे और जब इन दोनों के बीच बहस शुरू हो जाए, शायद पीने के बाद, तब जो बीच-बचाव करने की कोशिश करे, उसकी खैर नहीं होती थी।
खैर धनंजय जी कादम्बिनी में रहे, दूरदर्शन में आते रहे, अब भी कभी-कभी आते हैं, जिसके लिए कुबेर दत्त जी से उनकी मित्रता काफी उपयोगी रही।

धनंजय जी के एक-दो और गीतों की पंक्तियां याद आ रही हैं-

गीत जीने का मन ही न हो, गीत गाने का क्या फायदा।

यूं रदीफों के संग काफिये, भर मिलाने से क्या फायदा।

डायरी के किसी पृष्ठ पर, फूल बनकर तो जी लेते हम,
संस्मरण के बहाने मगर, याद आने से क्या फायदा।
हर चटकती हुई भीत की, सब दरारों में चंदन भरें,
द्वार पर हर सुबह, अल्पना भर सजाने से क्या फायदा।
**************
यद्यपि है स्वीकार निमंत्रण, तदपि अभी मैं आ न सकूंगा।
नील-झील सा रूप तुम्हारा, गिरे कंकरी तो हिल जाए,
मेरा मन दर्पण जैसा है, टूटे सौ प्रतिबिंब दिखाए,
यदि उल्टा प्रतिबिंब बना तो, दर्पण को बहला न सकूंगा।

मुझे याद है एक बार जब धनंजय जी काफी दिन तक कुछ नहीं लिख पाए थे, तब काफी दिन बाद उन्होंने दो गीत एक साथ लिखे थे, उन गीतों की कुछ पंक्तियां इस प्रकार हैं-

भाव विहग उड़ इधर-उधर, दुख दाने चुग आए,

मन पर घनी वनस्पतियों के जंगल उग आए।

हरे ताल की छाती पर, आ बैठी जलकुंभी,

और किनारे पर कंटिया ले, बैठे हो तुम भी,

एक-एक पीड़ा के बांटे, कितने युग आए।

***********

कौन किसे क्या समझा पाया, लिख-लिख गीत नये,

दिन क्यों बीत गए। 

छप-छप करती नाव हो गई, बालू का कछुवा,

दूर किनारे पर जा बैठा, बंसीधर मछुआ,

फिर मछली के मन पर कांटे, क्या-क्या चीत गए,

दिन क्यों बीत गए।

श्री धनंजय सिंह गाजियाबाद में रहते हैं और इस बीच मैं ग़ोआ में आ चुका हूँ, उनसे मिले लंबा अरसा बीत चुका है, शायद लगभग 20 साल! इस ब्लॉग के बहाने मैं अपने इस वरिष्ठ साथी को याद करता हूँ तथा उनके स्वस्थ एवं सुखी जीवन की कामना करता हूँ।

नमस्कार।

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