55. मोहसिन मुझे रास आएगी शायद सदा आवारगी !

आज फिर से, लीजिए प्रस्तुत है एक और पुराना ब्लॉग-
संगीत की एक शाम याद आ रही है, कई वर्ष पहले की बात है, दिल्ली के सीरी फोर्ट ऑडिटोरियम में गज़ल गायक- गुलाम अली जी का कार्यक्रम था। मेरे बेटे ने मेरे शौक को देखते हुए मेरे लिए एक टिकट खरीद लिया था, रु.5,000/- का, अब टिकट आ गया था तो जाना ही था।
खैर कार्यक्रम तो अच्छा होना ही था, पूरी दुनिया में वे अपनी गायकी के लिए जाने जाते हैं। एक बात और है, पिछले 10-20 वर्षों में गज़ल काफी लोकप्रिय हुई हैं, कविगण भी गीत छोड़कर गज़लें लिखने लगे हैं। यह वास्तव में समय की मांग है।
जैसे पहले तो लोग शास्त्रीय संगीत सुनते थे,घंटों कोई गाने वाला ‘बाजूबंद खुल-खुल जाए’ गाता रहे और लोग उसका आनंद लेते रहें। अब किसी फिल्मी गायक के गाने सफल होने की कसौटी यह हो गई है कि लोग उसके गाने का दौड़ते- भागते भी आनंद ले सकें। पहले के जो गीत आज भी जीवित हैं, उनको बैठकर, ध्यान से सुनना पड़ता है।
यह तो अति हो गई, लेकिन गज़ल के लोकप्रिय होने का कारण क्या है? असल में कविता में हम क्या पाते हैं, उसे साहित्य के पंडितों ने कहा ‘दिव्य अर्थ प्रतिपादन’, यानि सुनकर सब लोग कहें, वाह क्या बात कही है! सभी कवि अपनी क्षमता के अनुसार यह काम करते हैं।
फर्क यह है कि गीत में यह दिव्य अर्थ प्रतिपादन छंद के अंत में होता है और कई बार छंद काफी लंबा होता है, उस पर कवि महोदय पंक्ति को दोहराते भी रहते हैं, सामान्य श्रोता के पास इतनी फुर्सत नहीं होती कि वह कविता में रस की निष्पत्ति के लिए इतना इंतज़ार करे।
इसके विपरीत गज़ल में ऐसा है कि एक पंक्ति कही और अगली पंक्ति में श्रोता रस के बरसने का इंतज़ार करता है बल्कि अक्सर इसका अनुमान भी हो जाता है कि क्या आने वाला है। इस तरह आज फुर्सत रहित ज़िंदगी के लिए, गज़ल ज्यादा सही लगती है।

जो आज रौनक-ए-महफिल दिखाई देता है,
नए लिबास में क़ातिल दिखाई देता है।

फिर से आते हैं गुलाम अली जी के कार्यक्रम पर, इस कार्यक्रम में उन्होंने अनेक यादगार गज़लें सुनाईं। एक श्रोता ने फर्माइश की –

इतनी मुद्दत बाद मिले हो …

इस पर गुलाम अली बोले- मैं तो आता ही रहता हूँ, आप कहाँ रहते हैं? उस समय तक शायद शिव सैनिकों का पराक्रम इतना नहीं बढ़ा था, वैसे शायद दिल्ली में तो अब भी उतनी हालत खराब नहीं हुई है।

पहली बार मैंने गुलाम अली जी की गाई गज़ल जयपुर में सुनी थी, जब मैं 1980 से 1983 तक वहाँ आकाशवाणी में कार्यरत था। एकदम अलग तरह की गज़ल थी यह, बहुत अच्छी लगी थी उस समय-

ये दिल, ये पागल दिल मेरा
क्यों बुझ गया आवारगी,

इस दश्त में एक शहर था
वो क्या हुआ आवारगी।

कल रात तनहा चांद को
देखा था मैंने ख्वाब में,

मोहसिन मुझे रास आएगी
शायद सदा आवारगी।

उस शाम गुलाम अली साहब को सुनना एक अलग तरह का अनुभव था, हमारे दो पड़ौसी देशों के बीच जो दुश्मनी पनप रही है, उसके कारण हम ऐसे श्रेष्ठ कलाकारों को भी सुनने से वंचित हो जाते हैं, जबकि कलाकार तो सिर्फ प्रेम का ही प्रसार करते हैं।
नमस्कार।


2 responses to “55. मोहसिन मुझे रास आएगी शायद सदा आवारगी !”

  1. Nice post

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    1. Thanks.

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