सर्दी की रात में सैर !

आज भी मैं विख्यात अंग्रेजी कवि श्री रॉबर्ट फ्रॉस्ट की एक कविता का भावानुवाद और उसके बाद मूल कविता प्रस्तुत कर रहा हूँ। पहले प्रस्तुत है मेरे द्वारा किया गया कविता का भावानुवाद-

सर्दी की रात में सैर

सर्दियों में शाम की सैर के लिए-
कोई नहीं था मेरे साथ, जिससे कर सकूं कुछ बात,
परंतु एक लंबी कतार थी, झोपड़ियों की,
गिरती बर्फ के बीच, जिनमें से रोशनी की आंखें चमक रही थीं।

और मैंने महसूस किया कि मेरे भीतर जनता है:
मेरे भीतर वायलिन के सुर हैं,
मुझे पर्दे के भीतर से झलक दिखाई दे रही थी
यौवन भरे आकारों और युवा चेहरों की।

मेरे पास बाहर से ऐसा साथ था,
मैं वहाँ तक चलता चला गया, जब आगे और झोंपड़ियां नहीं थीं।
मैं फिर वापस मुड़ा और पछताया, परंतु वापस लौटते समय,
मुझे कोई खिड़की दिखाई नहीं दी, पूर्ण अंधकार था।

बर्फ के ऊपर चरचराहट की आवाज करते मेरे पांव,
गांव की ऊंघती गली की तंद्रा को बाधित कर रहे थे,
जैसे उस परिवेश को अपवित्र कर रहे हों,
सर्दी की रात में दस बजे बाहर निकलकर।

                    - रॉबर्ट फ्रॉस्ट</strong>

और अब मूल अंग्रेजी कविता-

I had for my winter evening walk-
No one at all with whom to talk,
But I had the cottages in a row
Up to their shining eyes in snow.

And I thought I had the folk within:
I had the sound of a violin;
I had a glimpse through curtain laces
Of youthful forms and youthful faces.

I had such company outward bound.
I went till there were no cottages found.
I turned and repented, but coming back
I saw no window but that was black.

Over the snow my creaking feet
Disturbed the slumbering village street
Like profanation, by your leave,
At ten o’clock of a winter eve.

                               <strong>Robert Frost</strong>

नमस्कार।
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