आज जगजीत सिंह जी की गाई हुई एक बहुत सुंदर गज़ल याद आ रही है। इसे 1982 में रिलीज़ हुई फिल्म- ‘साथ साथ’ के लिए के कुलदीप सिंह जी के संगीत निर्देशन में तैयार किया गया था। इस गज़ल के लेखक हैं– ज़नाब जावेद अख्तर जी।
कई बार इस गज़ल के अलग-अलग शेर, अलग-अलग संदर्भों में याद आते हैं। जावेद अख्तर साहब ने जिस खूबसूरती से इसे लिखा है, स्व. जगजीत सिंह जी ने गज़ल के भावों को उतने ही सुंदर तरीके से अपने मधुर स्वर में अभिव्यक्ति दी है।
गज़ल की शुरुआत में जहाँ किसी को अपने जीवन की धूप में, शीतल छाया के रूप में दिखाया गया है, वहीं अगले शेर में ऐसा कहा गया है कि दिल बार-बार तमन्नाएं करता है और फिर उसको समझाना पड़ता है कि ये सब संभव नहीं है।
तीसरे शेर में जो बात कही गई है वह भी सच है कि जब कोई व्यक्ति हमारे जीवन में नहीं रहता, या हमसे दूर चला जाता है, तभी हमें यह एहसास होता है कि उसका हमारे जीवन में क्या महत्व था।
आखिरी शेर में जो शिकायत की गई है, वह तो कवि लोग ही कर सकते हैं। जीवन में जो परिस्थिति हमारे सामने आती हैं, उनका तो हमको सामना करना ही पड़ता है, लेकिन कवि इसे, इस रूप में अभिव्यक्त करता है- ‘हम जिसे गुनगुना नहीं सकते, वक़्त ने ऐसा गीत क्यों गाया’।
आज मैं इसका अनुवाद करने का प्रयास न करते हुए, सीधे इस खूबसूरत गज़ल को आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ-
तुमको देखा तो ये खयाल आया,
ज़िंदगी धूप, तुम घना साया।
आज फिर दिल ने एक तमन्ना की,
आज फिर हमने दिल को समझाया।
तुम चले जाओगे तो सोचेंगे,
हमने क्या खोया, हमने क्या पाया।
हम जिसे गुनगुना नहीं सकते,
वक़्त ने ऐसा गीत क्यों गाया।
आज के लिए इतना ही।
नमस्कार।
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