60. बच्चों के लिए जो धरती मां, सदियों से सभी कुछ सहती है!

आज फिर से पुराने ब्लॉग का दिन है, लीजिए प्रस्तुत है एक और पुराना ब्लॉग-


सभी को समान अवसर मिले, यह कम्युनिस्टों का नारा हो सकता है, लेकिन इस विचार पर उनका एकाधिकार नहीं है। भारतीय विचार इससे कहीं आगे की बात करता है, हम समूचे विश्व को अपना परिवार मानते हैं। एक विचार जो इससे पनपता है, वह है कि सब एक साथ मिलकर प्रगति की राह पर बढ़ें। जहाँ कम्युनिस्ट कहते हैं-दुनिया भर के मज़दूरों एक हो जाओ। निश्चित रूप से यह एक वर्ग के दूसरे वर्ग के विरुद्ध इकट्ठा होने का, वर्ग-संघर्ष का विचार है, जबकि आज दुनिया भर में व्यवहार में लाया जा रहा है, कि सभी पक्ष एक साथ मिलकर उद्योग की प्रगति के लिए कार्य करें। कहीं समस्या आती है तो उसके लिए अनेक फोरम हैं, न्यायिक व्यवस्था है, यदि सभी लोगों का समय आपस में संघर्ष के स्थान पर उत्पादन बढ़ाने में, प्रगति करने में लगे तो सभी का भला होगा, लेकिन कम्युनिस्ट ऐसा मान ही नहीं पाते कि सब एक साथ मिलकर काम कर सकते हैं। उनकी तो किताब में लिखा है कि वर्ग-संघर्ष अनिवार्य है।

जहाँ तक लेखकों, कवियों की बात है, कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रभावित लेखकों, कवियों, फिल्मकारों ने बहुत अच्छी रचनाएं दी हैं, लेकिन वे स्वयं ही कभी एक नहीं हो पाए। मुझे कुछ घटनाएं याद आती हैं, अज्ञेय जी जैसे लेखक तो कम्युनिस्टों के घोषित शत्रु थे ही, एकाध बार ऐसा हुआ कि कमलेश्वर जी को किसी प्रगतिशील लेखक सम्मेलन में अध्यक्ष बनाकर बुलाया गया, फिर एक के बाद एक प्रतिभागी ने उनको जमकर गालियां दीं और अंत में अध्यक्ष महोदय को वहाँ से अपमानित करके निकाला गया।
दो वर्ष पहले की बात है, कोटा में एक लेखक महोदय से एक गोष्ठी में मुलाकात हुई, उनको मेरी कविताएं अच्छी लगीं और उन्होंने मुझे अपने घर बुलाया। घर पर आंगन में एक छोटा सा मंदिर बना था, जाहिर है कि घर में पूजा होती थी, जो भी करता हो। उन्होंने मुझे अपनी कुछ पुस्तकें भेंट कीं जिसके लिए मैं उनका आभारी हूँ, उनकी पुस्तकों में कुछ काफी अच्छी कविताएं थीं, कुछ अच्छी कहानियां भी थीं। मैं उनसे काफी प्रभावित हुआ लेकिन फिर अंत में एक कहानी देखी, जिसके बाद जितना प्रभाव मुझ पर पड़ा था, वो पूरा धुल गया। ये कहानी श्रीराम को लेकर लिखी गई थी, जिन्हें करोड़ों लोग भगवान मानते हैं। इस कहानी में सीता जी के त्याग को लेकर श्रीराम जी को क्या-क्या नहीं कहा गया। उन्हें कायर, नपुंसक, हिजड़ा, निर्लज्ज और न जाने क्या-क्या कह दिया गया था। वे व्यवहार से बहुत सज्जन व्यक्ति थे, बहुत अच्छा लिखा भी था उन्होंने, मैं समझ सकता हूँ कि उन्होंने यह रचना मठाधीशों के समक्ष मान्यता प्राप्त करने के लिए ही लिखी थी। वरना अच्छा लिखते रहो, कौन ध्यान देता है!

सभी के बीच समानता का विचार बहुत अच्छा है, लेकिन इसके साथ इस तरह लोगों की आस्था पर आक्रमण करना, या देश के विरुद्ध बातें करना क्यों ज़रूरी है, और समानता के विचार में भी मुझे अज्ञेय जी की टिप्पणी याद आ रही है, जैसे जंगल में सभी पेड़ अपनी क्षमता के अनुसार विकसित होते हैं, सबको समान अवसर उपलब्ध हो, हवा पानी मिलें, इसके बाद वे जितना विकसित हो सकें, हो जाएं। कम्युनिज़्म का विचार कुछ इस तरह है कि पेड़ों को ऊपर से एक ऊंचाई पर काटकर बराबर कर दिया जाए, तब कैसा लगेगा!

कुल मिलाकर कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रभावित लेखकों/कवियों ने बहुत अच्छा लिखा है, रमेश रंजक इसका एक अच्छा उदाहरण हैं, जिनको मैं समय-समय पर याद करता रहता हूँ, राज कपूर की फिल्में भी इस विचारधारा से प्रभावित रही हैं, रचना धर्मिता के साथ यह विचार भली भांति जुड़ता है, लेकिन दिक्कत तब होती है जब इस विचारधारा के पुरोधा देश, धर्म आदि से से जुड़ी आस्थाओं पर चोट करना प्रारंभ करते हैं।
तुलसीदास जी ने कहा है-

जाके प्रिय न राम वैदेही
तजिये ताहि कोटि वैरी सम, जद्यपि परम सनेही।

आप अपनी विचारधारा को महान मानते रहिए, लेकिन जैसे ही आपकी विचारधारा आपको मेरे देश अथवा मेरी धार्मिक भावना के विरुद्ध बोलने के लिए प्रेरित करेगी, वह मेरे लिए अवांछनीय हो जाएगी।

बात साहित्य के स्तर पर उतनी बुरी नहीं होती, वहाँ थोड़ी-बहुत बहस होती रहती है। असली दिक्कत होती है राजनीति के स्तर पर जहाँ इनकी हरकतें राष्ट्रद्रोह की हद तक पहुंच जाती हैं, कन्हैया वाले मामले में माननीय न्यायाधीश महोदया की टिप्पणी इसको स्पष्ट रूप से रेखांकित करती है।

मैंने अपनी जीवन यात्रा से जुड़े ब्लॉग्स में पहले इसका उल्लेख किया है कि किस प्रकार खेतड़ी कॉपर कॉम्प्लेक्स में श्रमिक यूनियनों की आपसी प्रतियोगिता में एक रात सभी अधिकारियों को ऑफिस में बितानी पड़ी थी। अभी 4-5 वर्ष पहले  गुड़गांव के मारुति उद्योग में घटी घटना तो दिल दहला देने वाली थी, जिसे में मानव संसाधन विभाग के एक प्रबंधक को मज़दूरों की भीड़ के बीच जिंदा जला दिया गया। यह देखकर तो यही खयाल आता है कि उस व्यक्ति के चारों ओर खड़े लोग इंसान थे भी या नहीं।

मैं यह मानता हूँ कि नफरत जो भी फैलाता है, वह किसी भी आधार या बहाने से हो, वह इंसानियत का दुश्मन है।

अंत में, भारतीय सादगी और विशाल हृदयता का यह उद्घोष –

होठों पे सच्चाई रहती है, जहाँ दिल में सफाई रहती है,
हम उस देश के वासी हैं, जिस देश में गंगा बहती है।

कुछ लोग जो ज्यादा जानते हैं, इंसान को कम पहचानते हैं,
ये पूरब है, पूरब वाले हर जान की कीमत जानते हैं।
बच्चों के लिए जो धरती मां, सदियों से सभी कुछ सहती है,
हम उस देश के वासी हैं, जिस देश में गंगा बहती है।

नमस्कार।


4 responses to “60. बच्चों के लिए जो धरती मां, सदियों से सभी कुछ सहती है!”

  1. Well said. Such thoughts are need of the hour for a troubled world.

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  2. You have raised a very valid point. Most of the left oriented intellectuals I have found to be close minded. In the garb of freedom of expression they want to peddle their idea. If you do not agree they insult you. Generally, these people believe in the expression, “my way or highway.” No wonder communists have killed millions of peopel in Russia and China. Now communist have arrived to say Ramayana and Mahabharat are violent.

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