66. न था रक़ीब तो आखिर वो नाम किसका था!

आज फिर से पुराने ब्लॉग का दिन है, लीजिए प्रस्तुत है एक और पुराना ब्लॉग-
आज कुछ गज़लें, कवितायें जो याद आ रही हैं, उनके बहाने बात करूंगा।

 

 

एक मेरे दिल्ली पब्लिक लायब्रेरी की शनिवारी सभा के साथी थे- राना सहरी, जो उस समय लिखना शुरू कर रहे थे, बाद में उनकी लिखी कुछ गज़लें जगजीत सिंह जी ने भी गाईं, उनमें से ही एक को याद कर रहा हूँ। यह गज़ल शहर की बेदिली के बारे में है, जहाँ कभी लगता है कि अगर दोस्त नहीं है तो कम से कम कोई प्रतिस्पर्द्धा करने वाला ही हो। कोई तो हो, जो हमारे यहाँ होने को मान्यता, अर्थ देता हो। बहुत अच्छी गज़ल है, शेयर कर रहा हूँ-

कोई दोस्त है न रकीब है,
तेरा शहर कितना अजीब है।

वो जो इश्क था वह जूनून था,
ये जो हिज्र है ये नसीब है।

यहाँ किसका चेहरा पढ़ करूं,
यहाँ कौन इतना करीब है।

मैं किसे कहूं मेरे साथ चल,
यहाँ सब के सर पे सलीब है।

कविता, गज़ल को समझाने के लिए नहीं, उसके अर्थ विस्तार के साथ, स्वयं को जोड़ने के लिए कहना चाहूंगा कि शहर इतना बेदर्द है और यहाँ लोग अपने ही कामों में इतने डूबे हुए हैं कि उनको किसी की तरफ देखने, उसके साथ दो कदम चलने की फुर्सत नहीं है।

अब दाग देहलवी की गज़ल के कुछ शेर शेयर करूंगा, जिनको गुलाम अली साहब ने गाया है।

कुछ समझाने की बात नहीं है, यहाँ शिकायत कुछ अलग तरह की है। पहली गज़ल में जहाँ शिकायत यह थी कि कोई ध्यान नहीं देता, वहीं यहाँ शिकायत यह है कि कौन है जो ज़नाब की प्रेमिका के माध्यम से सलाम भेज रहा है-

 

तुम्हारे ख़त में नया इक सलाम किस का था
न था रक़ीब तो आख़िर वो नाम किस का था।

वो क़त्ल कर के मुझे,  हर किसी से पूछते हैं
ये काम किस ने किया है, ये काम किस का था।

वफ़ा करेंगे ,निबाहेंगे, बात मानेंगे
तुम्हें भी याद है कुछ ये कलाम किस का था।

रहा न दिल में वो बेदर्द और दर्द रहा
मुक़ीम कौन हुआ है मुक़ाम किस का था।

गुज़र गया वो ज़माना कहें तो किस से कहें
ख़याल मेरे दिल को सुबह-ओ-शाम किस का था।

हर इक से कहते हैं क्या ‘दाग़’ बेवफ़ा निकला
ये पूछे इन से कोई वो ग़ुलाम किस का था।

और अंत में अपने एक अधूरे गीत को शेयर कर रहा हूँ, अधिकांश समय मैंने महानगर दिल्ली में बिताया है, कविता के मंचों पर भी कभी-कभार जाता था और अक्सर ऐसे मंचों पर जाने वालों से मित्रता थी, सो कुछ भाव इस पृष्ठभूमि से जुड़े हुए इस गीत में आ गए, जो मैंने कभी, कहीं पढ़ा भी नहीं है-

महानगर धुआंधार है
बंधु आज गीत कहाँ गाओगे!

ये जो अनिवार, नित्य ऐंठन है-
शब्दों में व्यक्त कहाँ होती है,
शब्द जो बिखेरे भावुकता में,
हैं कुछ तो, मानस के मोती हैं।

मौसम अपना वैरागी पिता-
उसको किस राग से रिझाओगे।

बंधु आज गीत कहाँ गाओगे॥

आज के लिए इतना ही,

नमस्कार।

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