आज हिंदी नवगीत आंदोलन के एक प्रमुख हस्ताक्षर रहे स्व. रमेश रंजक जी का एक गीत शेयर कर रहा हूँ, मैंने शुरू में भी रंजक जी के कुछ गीत शेयर किए हैं।
आज का गीत, कुछ यूं समझिए कि जैसे शाम होती है, विशेष रूप से महानगर में, सड़कों पर भीड़ आ जाती है। अपने अपने कर्मस्थलों से निकलकर, बाकी का काम अगले दिन के लिए छोड़कर। इनमें ऐसे लोग भी होते हैं, जो अपने आवास, संपत्ति जो भी है, उसका विस्तार करने के लिए, बहुत सी बार अपनी शर्म को भी छोड़ देते हैं।
कुल मिलाकर महानगर की शाम का दृश्य है, काफी हद तक उस दिन के काम से मुक्त होने की खुशी भी है, बस यही समझ लीजिए।
लीजिए प्रस्तुत है यह गीत-
मुट्ठी भर बाँधकर इरादे,
बाहों भर तोड़कर क़सम,
गीतों के रेशमी नियम जैसे-
वैसे ही टूट गए हम।
यह जीवन-
धूप का कथानक था,
रातों का चुटकला न था।
पर्वत का
मंगलाचरण था यह,
पानी का बुलबुला न था।
आँगन का आयतन बढ़ाने,
बढ़ने दो-चार सौ क़दम,
हमने दीवार की तरह तोड़ी,
परदों की साँवली शरम।
मुट्ठी भर बाँधकर इरादे…।
आज के लिए इतना ही।
नमस्कार।
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