आज ज़नाब कृष्ण बिहारी ‘नूर’ जी की एक खूबसूरत सी गज़ल शेयर करने का मन हो रहा है। ‘नूर’ साहब उर्दू अदब के जाने-माने शायर थे, इस गज़ल में कुछ बेहतरीन फीलिंग्स और जीवन का फल्सफा भी है।
वैसे इस गज़ल को जगजीत सिंह जी ने गाया भी है, इसलिए कभी तो आपने इसको सुना ही होगा, लीजिए आज इसको दोहरा लेते हैं-
बस एक वक़्त का ख़ंजर मेरी तलाश में है,
जो रोज़ भेस बदल कर मेरी तलाश में है।
ये और बात कि पहचानता नहीं मुझको,
सुना है एक सितमग़र मेरी तलाश में है।
अधूरे ख़्वाबों से उकता के जिसको छोड़ दिया,
शिकन नसीब वो बिस्तर मेरी तलाश में है।
ये मेरे घर की उदासी है और कुछ भी नहीं,
दिया जलाये जो दर पर मेरी तलाश में है।
अज़ीज़ मैं तुझे किस कदर कि हर एक ग़म,
तेरी निग़ाह बचाकर मेरी तलाश में है।
मैं एक कतरा हूँ मेरा अलग वजूद तो है,
हुआ करे जो समंदर मेरी तलाश में है।
मैं देवता की तरह क़ैद अपने मंदिर में,
वो मेरे जिस्म के बाहर मेरी तलाश में है।
मैं जिसके हाथ में इक फूल देके आया था,
उसी के हाथ का पत्थर मेरी तलाश में है।
वो जिस ख़ुलूस की शिद्दत ने मार डाला ‘नूर,’
वही ख़ुलूस मुकर्रर मेरी तलाश में है।
आज के लिए इतना ही,
नमस्कार।
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