मेरी उपलब्ध रचनाएं यहाँ शेयर करने का आज पंद्रहवां दिन है, इस प्रकार जहाँ इन सबको, जितनी उपलब्ध हैं, एक साथ शेयर कर लूंगा जिससे यदि कभी कोई संकलनकर्ता इनको ऑनलाइन संकलन में शामिल करना चाहे तो कर ले। इसके लिए मैं अपनी ब्लॉग पोस्ट्स में जिस क्रम में कविताएं पहले शेयर की हैं, उसी क्रम में उनको लेकर यहाँ पुनः एक साथ शेयर कर रहा हूँ।
जैसा मैंने पहले भी बताया है, हमेशा ‘श्रीकृष्ण शर्मा’ नाम से रचनाएं लिखता रहा, उनका प्रकाशन/ प्रसारण भी हमेशा इसी नाम से हुआ, नवगीत से संबंधित पुस्तकों/ शोध ग्रंथों में भी मेरा उल्लेख इसी नाम से आया है, लेकिन अब जबकि मालूम हुआ कि इस नाम से कविताएं आदि लिखने वाले कम से कम दो और रचनाकार रहे हैं, इसलिए अब मैं अपनी कविताओं को पहली बार श्रीकृष्ण शर्मा ‘अशेष’ नाम से प्रकाशित कर रहा हूँ, जिससे एक अलग पहचान बनी रहे।
उस समय जो कविताएं किसी हद तक ‘परफेक्ट’ लगती थीं उनको मित्रों के बीच, गोष्ठियों में पढ़ देता था। बहुत सी पांडुलिपियां ऐसी होती थीं जिनको लेकर तसल्ली नहीं होती थी।
ऐसी ही कुछ कागज़ पर सुरक्षित कविताएं, जिनको मैंने उस समय फाइनल नहीं माना और बाद में उनको फाइनल रूप देने का समय नहीं मिला, आज की तारीख में सोचता हूँ कि उनको ‘जैसी हैं, जहाँ हैं, वैसी शेयर कर लेता हूँ।
एक कविता आज प्रस्तुत है-
सपनों के झूले में
झूलने का नाम है- बचपन,
तब तक-जब तक कि
इन सपनों की पैमाइश
जमीन के टुकड़ों,
इमारत की लागत
और बैंक खाते की सेहत से न आंकी जाए।
जवान होने का मतलब है
दोस्तों के बीच होना
ठहाकों की तपिश से
माहौल को गरमाना,
और भविष्य के प्रति
अक्सर लापरवाह होना।
बूढ़ा होने का मतलब है-
अकेले होना,
जब तक कोई, दोस्तों की
चहकती-चिलकती धूप में है,
तब तक वह बूढ़ा कैसे हो सकता है।
काश यह हर किसी के हाथ में होता
कि वह-
जब चाहे बच्चा, जब चाहे जवान बना रहता,
और बूढ़ा होना, मन से-
यह तो विकल्पों में
शामिल ही नहीं है।
-श्रीकृष्ण शर्मा ‘अशेष’
आज के लिए इतना ही,
आपकी प्रतिक्रियाओं का स्वागत है।
*******
Leave a Reply