आज फिर से एक पुरानी ब्लॉग पोस्ट शेयर कर रहा हूँ|
मुकेश जी का गाया एक प्रायवेट गाना याद आ रहा है-
मेरे महबूब, मेरे दोस्त, नहीं ये भी नहीं
मेरी बेबाक तबीयत का तकाज़ा है कुछ और।
हाँ मैं दीवाना हूँ चाहूँ तो मचल सकता हूँ,
खिलवत-ए-हुस्न के कानून बदल सकता हूँ,
खार तो खार हैं, अंगारों पे चल सकता हूँ,
मेरे महबूब, मेरे दोस्त, नहीं ये भी नहीं
मेरी बेबाक तबीयत का तकाज़ा है कुछ और।
इस गीत में आगे भी कुछ अच्छी पंक्तियां हैं, लेकिन इतना ही शेयर करूंगा क्योंकि इतना हिस्सा सभी को आसानी से समझ में आ सकता है। कुल मिलाकर हर कोई यह बताना चाहता है कि मेरी कुछ अलग फिलॉसफी है ज़िंदगी की, अलग सिद्धांत हैं और खुद्दारी है, जो मेरी पहचान है, लेकिन अपने सिद्धांतों के लिए मैं कुछ भी कर सकता हूँ।
अपनी बात कहने के लिए, कोई माकूल माध्यम और बहाना चाहिए। राजकपूर जी को फिल्म का माध्यम अच्छा लगता था, खानदानी दखल भी था उस माध्यम में, क्योंकि पिता पृथ्वीराज कपूर प्रसिद्ध रंगकर्मी और सिने कलाकार थे, सो राजकपूर जी ने फिल्म का माध्यम अपनाया, लेकिन कही वही अपनी बात, अपनी पसंदीदा फिलॉसफी को पर्दे पर अभिव्यक्त किया, यहाँ तक कि जेबकतरे का काम कर रहे नायक से भी यही कहलवाया-
मैं हूँ गरीबों का शहज़ादा, जो चाहूं वो ले लूं,
शहज़ादे तलवार से खेले, मैं अश्कों से खेलूं।
लेकिन इससे भी पहले वो कहते हैं-
देखो लोगों जरा तो सोचो, बनी कहानी कैसे,
तुमने मेरी रोटी छीनी, मैंने छीने पैसे,
सीख़ा तुमसे काम, हो गया मैं बदनाम,
हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई सबको मेरा सलाम,
छलिया मेरा नाम।
मेरा ब्लॉग, मेरा प्लेटफॉर्म है, मेरी फिल्म है, मेरा नाटक है। मैं अपनी बात इसी तरह कहूंगा, कभी आज की बात का ज़िक्र करके, कभी अतीत की किसी घटना, किसी धरोहर को याद करके।
जाते-जाते एक और गीत याद आ रहा है-
जब गम-ए-इश्क़ सताता है तो हंस लेता हूँ,
हादसा याद जब आता है तो हंस लेता हूँ।
मेरी उजड़ी हुई दुनिया में तमन्ना का चिराग
जब कोई आ के जलाता है तो हंस लेता हूँ।
कोई दावा नहीं, फरियाद नहीं, तंज़ नहीं,
रहम जब अपने पे आता है तो हंस लेता हूँ।
बी हैप्पी, जस्ट चिल!
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