आज सोम ठाकुर जी का एक गीत शेयर कर रहा हूँ। जब अपनी नियोजक कंपनी के लिए मैं कवि सम्मेलनों का आयोजन किया करता था तब अनेक बार उनसे मिलने का अवसर मिला, बहुत सहृदय व्यक्ति और अत्यंत उच्च कोटि के रचनाकार हैं। उनके अनेक गीत मन पर अंकित हैं। राष्ट्र, राष्ट्रभाषा और रचनाकर के स्वाभिमान को लेकर उनकी अनेक अत्यंत प्रभावशाली रचनाएं हैं।
आज उनका जो गीत शेयर कर रहा हूँ, वह एक व्यंग्य गीत है, जिसमें यह अभिव्यक्त किया गया है कि आज हर क्षेत्र में, लोगों के पास चिंतन-मनन, संवेदन और भावनाओं की गहराई नहीं है लेकिन अहंकार अक्सर प्रदर्शित होता रहता है। लीजिए प्रस्तुत है यह भावपूर्ण गीत-
नज़रिए हो गये छोटे हमारे,
मगर बौने बड़े दिखने लगे हैं।
चले इंसानियत की राह पर जो,
मुसीबत में पड़े दिखने लगे है।
समय के पृष्ठ पर हमने लिखी थी
छबीले मोर पंखों से ऋचाएँ,
सुनी थी इस दिशा में उस दिशा तक
अंधेरो ने मशालों की कथाएँ।
हुए हैं बोल अब दो कौड़ियों के,
कलम हीरे- जड़े दिखने लगे हैं।
हुआ होगा कही ईमान मँहगा
यहाँ वह बिक रहा है नीची दरों पर,
गिरा है मोल सच्चे आदमी का
टिका बाज़ार कच्चे शेयरों पर,
पुराने दर्द से भीगी नज़र को
सुहाने आँकड़े दिखने लगे हैं।
हमारा घर अजायब घर बना है
सपोले आस्तीनों में पले हैं,
हमारा देश हैं खूनों नहाया
यहाँ के लोग नाखूनों फले हैं,
कहीं वाचाल मुर्दे चल रहे है
कही ज़िंदा गड़े दिखने लगे हैं।
मुनादी द्वारका ने यह सुना दी
कि खाली हाथ लौटेगा सुदामा,
सुबह का सूर्य भी रथ से उतरकर
सुनेगा जुगनुओं का हुक्मनामा,
चरण जिनके सितारों ने छुए वे
कतारों में खड़े दिखने लगे हैं।
यहाँ पर मज़हबी अंधे कुए हैं
यहाँ मेले लगे है भ्रांतियों के
लगी है क्रूर ग्रहवाली दशा भी,
महूरत क्या निकालें क्रांतियों के
सगुन कैसे विचारें मंज़िलो के,
हमें सूने घड़े दिखने लगे हैं।
आज के लिए इतना ही।
नमस्कार।
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