जब राजा फँसता दिखे पैदल दे पिटवाय!

आज मैं हिंदी गीतों के राजकुंवर, स्व. गोपाल दास ‘नीरज’ जी के लिखे कुछ दोहे शेयर कर रहा हूँ, जैसे गज़ल के शेरों में संक्षेप में बड़ी बात कही जाती है, दोहे भी बहुत लंबे समय से, थोड़े में अधिक बात कहने के लिए प्रयोग किए जाते रहे हैं, तुलसीदास जी के और उनसे भी पहले के समय से। लीजिए प्रस्तुत हैं नीरज जी के कुछ दोहे-

 

 

राजनीति के खेल ये समझ सका है कौन,
बहरों को भी बँट रहे अब मोबाइल फोन।

 

राजनीति शतरंज है, विजय यहाँ वो पाय,
जब राजा फँसता दिखे पैदल दे पिटवाय।

 

चील, बाज़ और गिद्ध अब घेरे हैं आकाश,
कोयल, मैना, शुकों का पिंजड़ा है अधिवास।

 

दूध पिलाये हाथ जो, डसे उसे भी साँप,
दुष्ट न त्यागे दुष्टता कुछ भी कर लें आप।

 

तोड़ो, मसलो या कि तुम उस पर डालो धूल,
बदले में लेकिन तुम्हें खुशबू ही दे फूल।

 

हम कितना जीवित रहे, इसका नहीं महत्व,
हम कैसे जीवित रहे, यही तत्व अमरत्व।

 

जीने को हमको मिले यद्यपि दिन दो-चार,
जिएँ मगर हम इस तरह हर दिन बनें हजार।

 

बन्दर चूके डाल को, और आषाढ़ किसान,
दोनों के ही लिए है ये गति मरण समान।

 

चिडि़या है बिन पंख की कहते जिसको आयु,
इससे ज्यादा तेज़ तो चले न कोई वायु।

 

बुरे दिनों में कर नहीं कभी किसी से आस,
परछाई भी साथ दे, जब तक रहे प्रकाश।

 

रहे शाम से सुबह तक मय का नशा ख़ुमार,
लेकिन धन का तो नशा कभी न उतरे यार।

 

रामराज्य में इस कदर फैली लूटम-लूट,
दाम बुराई के बढ़े, सच्चाई पर छूट।

 

स्नेह, शान्ति, सुख, सदा ही करते वहाँ निवास,
निष्ठा जिस घर माँ बने, पिता बने विश्वास।

 

जीवन का रस्ता पथिक सीधा सरल न जान,
बहुत बार होते ग़लत मंज़िल के अनुमान।

 

किया जाए नेता यहाँ, अच्छा वही शुमार,
सच कहकर जो झूठ को देता गले उतार।

 

जब से वो बरगद गिरा, बिछड़ी उसकी छाँव,
लगता एक अनाथ-सा सबका सब वो गाँव।

 

काग़ज़ की एक नाव पर मैं हूँ आज सवार,
और इसी से है मुझे करना सागर पार।

 

आज के लिए इतना ही।
नमस्कार।

*****

5 responses to “जब राजा फँसता दिखे पैदल दे पिटवाय!”

  1. Excellent 🙂 I especially like the part about sailing across the ocean in a paper boat.

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    1. Thanks a lot.

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      1. You’re welcome 🙂

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      2. Thanks again.

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