अनमना दर्पण निमंत्रण दे रहा है- सोम ठाकुर

आज मैं फिर से अपने एक प्रिय कवि सोम ठाकुर जी का एक गीत शेयर कर रहा हूँ| इस गीत में उन्होंने बहुत सुंदर रूमानी भाव व्यक्त किए हैं| सोम ठाकुर जी  ने हर प्रकार के भावों को लेकर बहुत सुंदर गीत लिखे हैं और कवि सम्मेलनों में उनको सुनने का बहुत दिव्य अनुभव होता था| पता नहीं वे आजकल सक्रिय हैं या नहीं| वैसे भी आजकल लॉकडाउन में तो सभी घरों में बंद हैं| मैं सोम ठाकुर जी की दीर्घायु की कामना करता हूँ|

लीजिए प्रस्तुत है सोम ठाकुर जी का यह प्यारा सा गीत-

 

लौट आओ मांग के सिंदूर की सौगंध तुमको
नयन का सावन निमंत्रण दे रहा है।

 

आज बिसराकर तुम्हें कितना दुखी मन यह कहा जाता नहीं है।
मौन रहना चाहता, पर बिन कहे भी अब रहा जाता नहीं है।
मीत! अपनों से बिगड़ती है बुरा क्यों मानती हो?
लौट आओ प्राण! पहले प्यार की सौगंध तुमको
प्रीति का बचपन निमंत्रण दे रहा है।

 

रूठता है रात से भी चांद कोई और मंजिल से चरण भी
रूठ जाते डाल से भी फूल अनगिन नींद से गीले नयन भी
बन गईं है बात कुछ ऐसी कि मन में चुभ गई, तो
लौट आओ मानिनी! है मान की सौगंध तुमको
बात का निर्धन निमंत्रण दे रहा है।

 

चूम लूं मंजिल, यही मैं चाहता पर तुम बिना पग क्या चलेगा?
मांगने पर मिल न पाया स्नेह तो यह प्राण-दीपक क्या जलेगा?
यह न जलता, किंतु आशा कर रही मजबूर इसको
लौट आओ बुझ रहे इस दीप की सौगंध तुमको
ज्योति का कण-कण निमंत्रण दे रहा है।

 

दूर होती जा रही हो तुम लहर-सी है विवश कोई किनारा,
आज पलकों में समाया जा रहा है सुरमई आंचल तुम्हारा
हो न जाए आंख से ओझल महावर और मेंहदी,
लौट आओ, सतरंगी शृंगार की सौगंध तुम को
अनमना दर्पण निमंत्रण दे रहा है।

 

कौन-सा मन हो चला गमगीन जिससे सिसकियां भरतीं दिशाएं
आंसुओं का गीत गाना चाहती हैं नीर से बोझिल घटाएं
लो घिरे बादल, लगी झडि़यां, मचलतीं बिजलियां भी,
लौट आओ हारती मनुहार की सौगंध तुमको
भीगता आंगन निमंत्रण दे रहा है।
यह अकेला मन निमंत्रण दे रहा है।

 

आज के लिए इतना ही|
नमस्कार|

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