आज मैं एक बार फिर से अपने प्रिय कवियों में से एक रहे, स्वर्गीय किशन सरोज जी का एक गीत प्रस्तुत कर रहा हूँ, ये बात मुझे बार-बार बतानी अच्छी लगती है कि मैंने कई बार उनको अपने आयोजनों में बुलाया था और वे बड़े आत्मीय भाव से गले मिलते थे| एक बात और बता दूँ, मैं अपने एक निकट संबंधी की मृत्यु का समाचार पाकर वहाँ जा रहा था| तभी ट्रेन में यात्रा करते समय मुझे किशन जी की मृत्यु का समाचार ज्ञात हुआ, कुमार विश्वास जी के द्वारा लिखा गया पोस्ट पढ़कर| यह पढ़कर मेरी स्थिति ऐसी हो गई कि मुझे लगा कि अगर मैं यहाँ ट्रेन में ही रोने लगा तो लोग क्या कहेंगे|
खैर आप किशन सरोज जी का, गीत कवि की व्यथा से जुड़ा यह भावुक सा गीत पढ़िए-
इस गीत कवि को क्या हुआ,
अब गुनगुनाता तक नहीं|
इसने रचे जो गीत जग ने
पत्रिकाओं में पढ़े,
मुखरित हुए तो भजन जैसे
अनगिनत होंठों चढ़े|
होंठों चढ़े, वे मन बिंधे,
अब गीत गाता तक नहीं|
अनुराग, राग विराग
सौ सौ व्यंग-शर इसने सहे,
जब जब हुए गीले नयन
तब तब लगाये कहकहे|
वह अट्टहासों का धनी
अब मुस्कुराता तक नहीं|
मेलों तमाशों में लिये
इसको फिरी आवारगी,
कुछ ढूँढती सी दॄष्टि में
हर शाम मधुशाला जगी|
अब भीड़ दिखती है जिधर,
उस ओर जाता तक नहीं|
आज के लिए इतना ही|
नमस्कार|
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