आज फिर से एक पुरानी ब्लॉग पोस्ट की बारी है –
आज सोचा कि ज़िंदगी के बारे में बात करके, ज़िंदगी को उपकृत कर दें।
शुरू में डॉ. कुंवर बेचैन जी की पंक्तियां याद आ रही हैं, डॉ. बेचैन मेरे लिए गुरू तुल्य रहे हैं और उनकी गीत पंक्तियां अक्सर याद आ जाती हैं-

ज़िंदगी का अर्थ मरना हो गया है,
और जीने के लिए हैं दिन बहुत सारे।
जब सोचते हैं कि बहुत दिनों के लिए जीना है तो क्या किया जाए, तब यह याद आता है-
जीवन चलने का नाम, चलते रहो सुबह-ओ-शाम,
ये रस्ता कट जाएगा मितरा, ये बादल छंट जाएगा मितरा।
लेकिन फिर कोई यह कहता मिल जाता है-
ये करें और वो करें, ऐसा करें, वैसा करें।
ज़िंदगी दो दिन की है, दो दिन में हम क्या-क्या करें।
अब वैसे तो ये कवि-शायर लोग कन्फ्यूज़ करते ही रहते हैं, पर ज़िंदगी के बारे में इन्होंने कुछ ज्यादा ही कन्फ्यूज़ किया है-
ज़िंदगी कैसी है पहेली ये हाय
कभी तो हंसाये, कभी ये रुलाए।
और जब ज़िंदगी में परेशानियां ज्यादा होती हैं, तब फैज़ अहमद फैज़ कहते हैं-
ज़िंदगी क्या किसी मुफलिस की क़बा है जिसमें,
हर घड़ी दर्द के पैबंद लगे जाते हैं।
और कहीं कोई मोहब्बत का मारा, ये कहता हुआ भी मिल जाता है-
हम तुझ से मोहब्बत करके सनम, हंसते भी रहे, रोते भी रहे,
हंस हंस के सहे उल्फत में सितम, मरते भी रहे, जीते भी रहे।
जब जीवन में कोई पवित्र उद्देश्य मिल जाता है, तब ये खयाल ही नहीं आता कि ज़िंदगी छोटी है या बड़ी, तब इंसान इस तरह की बात करता है-
हम जिएंगे और मरेंगे ऐ वतन तेरे लिए,
दिल दिया है, जां भी देंगे, ऐ वतन तेरे लिए।
एक बात और, स्वामी विवेकानंद और इस तरह के कुछ महापुरुष जब कम समय में बहुत बड़ी उपलब्धियां कर लेते हैं और कम उम्र में ही उनको जीवन-त्याग करना पड़ जाता है, उनके लिए सोम ठाकुर जी ने बड़ी सुंदर पंक्तियां लिखी हैं-
कोई दीवाना जब होंठों तक अमृत घट ले आया,
काल बली बोला मैंने, तुझ से बहुतेरे देखे हैं।
और आज के लिए आखिरी बात, ये फानी बदायुनी जी का शेर-
एक मुअम्मा है, समझने का न समझाने का,
ज़िंदगी काहे को है, ख्वाब है दीवाने का।
मेरे खयाल में ज़िंदगी के नाम पर, आज के लिए इतना कंफ्यूज़न ही काफी है।
नमस्कार।
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