एक बार फिर से आज मैं हिन्दी हास्य कविता के दुर्लभ हस्ताक्षर, स्वर्गीय ओम प्रकाश आदित्य जी की एक कविता शेयर कर रहा हूँ| यह एक लंबी हास्य कविता है जो उन्होंने एक ऐसे छात्र के बहाने से लिखी है, जो इतिहास की परीक्षा देने जाता है लेकिन उसे कुछ भी नहीं आता है|

लीजिए प्रस्तुत है यह सुंदर हास्य कविता –
इतिहास परीक्षा थी उस दिन, चिंता से हृदय धड़कता था,
थे बुरे शकुन घर से चलते ही, दाँया हाथ फड़कता था|
मैंने सवाल जो याद किए, वे केवल आधे याद हुए,
उनमें से भी कुछ स्कूल तलक, आते-आते बर्बाद हुए|
तुम बीस मिनट हो लेट द्वार पर चपरासी ने बतलाया,
मैं मेल-ट्रेन की तरह दौड़ता कमरे के भीतर आया|
पर्चा हाथों में पकड़ लिया, आँखें मूंदीं टुक झूम गया,
पढ़ते ही छाया अंधकार, चक्कर आया सिर घूम गया|
उसमें आए थे वे सवाल जिनमें मैं गोल रहा करता,
पूछे थे वे ही पाठ जिन्हें पढ़ डाँवाडोल रहा करता|
यह सौ नंबर का पर्चा है, मुझको दो की भी आस नहीं,
चाहे सारी दुनिय पलटे पर मैं हो सकता पास नहीं|
ओ! प्रश्न-पत्र लिखने वाले, क्या मुँह लेकर उत्तर दें हम,
तू लिख दे तेरी जो मर्ज़ी, ये पर्चा है या एटम-बम|
तूने पूछे वे ही सवाल, जो-जो थे मैंने रटे नहीं,
जिन हाथों ने ये प्रश्न लिखे, वे हाथ तुम्हारे कटे नहीं|
फिर आँख मूंदकर बैठ गया, बोला भगवान दया कर दे,
मेरे दिमाग़ में इन प्रश्नों के उत्तर ठूँस-ठूँस भर दे|
मेरा भविष्य है ख़तरे में, मैं भूल रहा हूँ आँय-बाँय,
तुम करते हो भगवान सदा, संकट में भक्तों की सहाय|
जब ग्राह ने गज को पकड़ लिया तुमने ही उसे बचाया था,
जब द्रुपद-सुता की लाज लुटी, तुमने ही चीर बढ़ाया था|
द्रौपदी समझ करके मुझको, मेरा भी चीर बढ़ाओ तुम,
मैं विष खाकर मर जाऊंगा, वर्ना जल्दी आ जाओ तुम|
आकाश चीरकर अंबर से, आई गहरी आवाज़ एक,
रे मूढ़ व्यर्थ क्यों रोता है, तू आँख खोलकर इधर देख|
गीता कहती है कर्म करो, चिंता मत फल की किया करो,
मन में आए जो बात उसी को, पर्चे पर लिख दिया करो|
मेरे अंतर के पाट खुले, पर्चे पर क़लम चली चंचल,
ज्यों किसी खेत की छाती पर, चलता हो हलवाहे का हल|
मैंने लिक्खा पानीपत का दूसरा युध्द भर सावन में,
जापान-जर्मनी बीच हुआ, अट्ठारह सौ सत्तावन में|
लिख दिया महात्मा बुध्द महात्मा गांधी जी के चेले थे,
गांधी जी के संग बचपन में आँख-मिचौली खेले थे|
राणा प्रताप ने गौरी को, केवल दस बार हराया था,
अकबर ने हिंद महासागर, अमरीका से मंगवाया था|
महमूद गजनवी उठते ही, दो घंटे रोज नाचता था,
औरंगजेब रंग में आकर औरों की जेब काटता था|
इस तरह अनेकों भावों से, फूटे भीतर के फव्वारे,
जो-जो सवाल थे याद नहीं, वे ही पर्चे पर लिख मारे|
हो गया परीक्षक पागल सा, मेरी कॉपी को देख-देख,
बोला- इन सारे छात्रों में, बस होनहार है यही एक|
औरों के पर्चे फेंक दिए, मेरे सब उत्तर छाँट लिए,
जीरो नंबर देकर बाकी के सारे नंबर काट लिए|
आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|
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