आज राहत इन्दौरी जी की एक ग़ज़ल शेयर कर रहा हूँ, राहत साहब की शायरी में अक्सर एक ‘पंच’ होता है जो अचानक श्रोताओं को अपनी ओर खींच लेता है, कोई ऐसी बात जिसकी हम सामान्यतः कविता / शायरी में उम्मीद नहीं करते, जैसे आज की इस ग़ज़ल में ही- ‘चांद पागल है, अंधेरे की तरह में निकल पड़ता है’|
लीजिए आज राहत इन्दौरी जी की इस ग़ज़ल का आनंद लीजिए-

रोज़ तारों की नुमाइश में खलल पड़ता है|
चाँद पागल हैं अंधेरे में निकल पड़ता है|
मैं समंदर हूँ कुल्हाड़ी से नहीं कट सकता
कोई फव्वारा नही हूँ जो उबल पड़ता है|
कल वहाँ चाँद उगा करते थे हर आहट पर
अपने रास्ते में जो वीरान महल पड़ता है|
ना त-आरूफ़ ना त-अल्लुक हैं मगर दिल अक्सर
नाम सुनता हैं तुम्हारा तो उछल पड़ता है|
उसकी याद आई हैं साँसों ज़रा धीरे चलो
धड़कनो से भी इबादत में खलल पड़ता है|
आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|
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