एक बार फिर से आज मैं हिन्दी के प्रमुख कवि एवं गीतकार, काव्य मंचों पर अपने मधुर गीतों के माध्यम से श्रोताओं को मंत्रमुग्ध करने वाले आदरणीय सोम ठाकुर जी का एक गीत शेयर कर रहा हूँ, जो मुझे अत्यंत प्रिय रहा है| शायद इस गीत का एक गीत शेयर कर रहा हूँ| सोम जी ने राष्ट्र प्रेम, भाषा प्रेम के गीत भी लिखे हैं और प्रेम के कवि तो वे हैं ही| आज मैं उनका एक श्रेष्ठ रूमानी गीत शेयर कर रहा हूँ|
लीजिए आज प्रस्तुत है आदरणीय सोम ठाकुर जी का यह गीत-

रूप तुम्हारा मन में कस्तूरी बो गया,
मन जाने क्या से क्या हो गया !
लोहे से गुथी हुई जंग लगी साँसों में
फिर आदिम जंगल उग आये,
माथे से टकराकर उछली यह चाँदनी
धमनियों – शिराओं में डूबे – उतराए,
गाँठ -पुरे जालों से
उड़कर फिर मनपांखी
पहला तिनका
नंगी शांख पर संजो गया .
मन जाने क्या से क्या हो गया|
एक पर्त झन्नाहट की फैली
अंग अंग चिपक गयी नज़रें ,
एक पोर भर चेहरा छूकर यह तर्जनी
ले आई आदमकद खबरें ,
तकिये पर टांक कर गुलाबों के संस्मरण
चाँदनी – बिंधा बादल
कंधे पर सो गया .
मन जाने क्या से क्या हो गया|
आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|
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