आज एक बार फिर मैं अपने अत्यंत प्रिय नवगीतकार स्वर्गीय रमेश रंजक जी का एक नवगीत शेयर कर रहा हूं| रंजक जी की अनेक रचनाएं मैं पहले भी शेयर कर चुका हूँ| मेरा सौभाग्य है कि मुझे उनको साक्षात सुनने के अनेक अवसर मिले, उनसे प्रशंसा भी प्राप्त की और लंबे समय तक उनसे गीत लिखने की प्रेरणा प्राप्त होती रही|
लीजिए प्रस्तुत है श्री रमेश रंजक जी का यह नवगीत –

इधर दो फूल मुँह से मुँह सटाए
बात करते हैं
यहीं से काट लो रस्ता
यही बेहतर
हमें दिन इस तरह के
रास आए नहीं ये दीगर
तसल्ली है कहीं तो
पल रहा है प्यार धरती पर
हरे जल पर पड़े मस्तूल-साए
बात करते हैं
यहीं से काट लो रस्ता
यही बेहतर
खुले में ये खुलापन देखकर
जो चैन पाया है
कई कुर्बानियों का रंग
रेशम में समाया है
उमर की आग का परचम उठाए
बात करते हैं
यहीं से काट लो रस्ता
यही बेहतर।
आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|
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