श्री ओम प्रभाकर जी हिन्दी के एक प्रमुख नवगीतकार हैं| उनका एक नवगीत मुझे बहुत पसंद है- ‘यात्रा के बाद भी पथ साथ रहते हैं’| आज मैं श्री ओम प्रभाकर जी का एक और सुंदर नवगीत शेयर कर रहा हूँ, जिसमें आज की विसंगतियों को उन्होंने एक अलग अन्दाज़ में प्रस्तुत किया है|
लीजिए आज प्रस्तुत है श्री ओम प्रभाकर जी का यह नवगीत –

बीत गए दिन
फूल खिलने के।
होती हैं केवल वनस्पतियाँ
हरी-हरी-सी
हर गली
हर मोड़ पर बैठी
मौत अपनी बाँह फैलाकर।
बर्फ़-सा
जमता हुआ हर शख़्स
चुप्पियों में क़ैद हैं साँसें,
समय की नंगी सलीबों पर
गले में अटकी हुईं फाँसें,
लिख रहे हैं
लोग कविताएँ
नींद की ज्यों गोलियाँ खाकर।
बीत गए दिन
अब हवाओं में गन्धकेतु हिलने के
फूल खिलने के।
ढोती हैं काले पहाड़ दृष्टियाँ
सूर्य झर गए,
दृश्य घाटी में गहरे उतर गए,
बीत गए दिन
उठी बाँहों से बाँहों के मिलने के
फूल खिलने के।
आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|
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