आज एक बार फिर मैं अपने प्रिय कवियों में से एक रहे स्वर्गीय भवानीप्रसाद मिश्र जी की एक कविता शेयर कर रहा हूँ, भवानी दादा की बहुत सी कविताएं मैंने पहले भी शेयर की हैं|
लीजिए, आज प्रस्तुत है स्वर्गीय भवानीप्रसाद मिश्र जी की यह कविता, जिसमें कवि ने एक अलग तरह का विचार दिया है –

मुझे अफ़सोस है
या कहिए मुझे वह है
जिसे मैं अफ़सोस मानता रहा हूँ
क्योंकि ज़्यादातर लोगों को
ऐसे में नहीं होता वह
जिसे मैं अफ़सोस मानता रहा हूँ
मेरा मन आज शाम को
शहर के बाहर जाकर
और बैठकर किसी
निर्जन टीले पर
देर तक शाम होना
देखते रहने का था
कारण-वश और क्या कहूँ
सभा में जाने की विवशता को
मैं शाम को
शहर के बाहर
नहीं जा पाया
न चढ़ पाया
इसलिए किसी टीले पर
देख नहीं सका
होती हुई शाम
और इसके कारण
जैसा लग रहा है मन को
उसे मैं अब तक
अफ़सोस ही कहता रहा हूँ
लोगों को
एक तो ऐसी
इच्छा ही नहीं होती
होती है तो
उसके पूरा न होने पर
उन्हें कुछ लगता नहीं है
या जो लगता है
उसे वे अफ़सोस
नहीं कहते
मैं आज विजन में
किसी टीले पर चढकर
देर तक
होती हुई शाम नहीं देख पाया
जाना पड़ा एक सभा में
इसका मुझे अफ़सोस है
या कहिए
मुझे वह है
जिसे मैं
अफ़सोस मानता रहा हूँ!
(आभार- एक बात मैं और बताना चाहूँगा कि अपनी ब्लॉग पोस्ट्स में मैं जो कविताएं, ग़ज़लें, शेर आदि शेयर करता हूँ उनको मैं सामान्यतः ऑनलाइन उपलब्ध ‘कविता कोश’ अथवा ‘Rekhta’ से लेता हूँ|)
आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|
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