आज एक बार फिर मैं हिन्दी के अपनी किस्म के अनूठे कवि स्वर्गीय भवानीप्रसाद मिश्र जी की एक कविता शेयर कर रहा हूँ| भवानी दादा की कविताओं को पढ़ना अपने आप में एक अलग ही किस्म के अनुभव से गुजरना होता है|
लीजिए, आज प्रस्तुत है स्वर्गीय भवानीप्रसाद मिश्र जी की यह कविता, जिसमें उन्होंने अपनी बीमारी के दौरान हुए अनुभव को वर्णित किया है –

अपने आप में
एक ओछी चीज़ है समय
चीजों को तोड़ने वाला
मिटाने वाला बने- बनाये
महलों मकानों
देशों मौसमों
और ख़यालों को
मगर आज सुबह से
पकड़ लिये हैं मैंने
इस ओछे आदमी के कान
और वह मुझे बेमन से ही सही
मज़ा दे रहा है
दस – पंद्रह मिनिट
सुख से बैठकर अकेले में
मैंने चाय भी पी है
लगभग घंटे – भर
नमिता को
जी खोलकर
पढाई है गीता
लगभग इतनी ही देर तक
गोड़ी हैं फूलों की क्यारियाँ
बाँधा है फिर से
ऊंचे पर
गिरा हुआ
चमेली का क्षुप
और
अब सोचता हूँ
दोपहर होने पर
बच्चों के साथ
बहुत दिनों में
बैठकर चौके में
भोजन करूंगा
हसूंगा बोलूंगा उनसे
जो लगभग
सह्मे- सह्मे से
घूमते रहते हैं आजकल
मेरी बीमारी के कारण
और फिर
सो जाऊंगा दो घंटे
समय अपने बस -भर
इस सबके बीच भी
मिटाता रहा होगा
चाय बनाने वाली
मेरी पत्नी को
गीता पढने वाली
मेरी बेटी को
चमेली के क्षुप को
और मुझको भी
मगर मैं
इस सारे अंतराल में
पकड़े रहा हूँ
इस ओछे आदमी के कान
और बेमन से ही सही
देना पड़ा है उसे
हम सबको मज़ा.
(आभार- एक बात मैं और बताना चाहूँगा कि अपनी ब्लॉग पोस्ट्स में मैं जो कविताएं, ग़ज़लें, शेर आदि शेयर करता हूँ उनको मैं सामान्यतः ऑनलाइन उपलब्ध ‘कविता कोश’ अथवा ‘Rekhta’ से लेता हूँ|)
आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|
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