झील का ठहरा हुआ जल!

आज मैं हिन्दी के श्रेष्ठ नवगीतकार श्री माहेश्वर तिवारी जी का एक सुंदर नवगीत शेयर कर रहा हूँ| तिवारी जी के अनेक नवगीत संग्रह प्रकाशित हुए हैं और उनको अनेक सम्मान भी प्राप्त हुए हैं|

लीजिए आज प्रस्तुत है श्री माहेश्वर तिवारी जी का यह नवगीत यह –

उंगलियों से कभी
हल्का-सा छुएँ भी तो
झील का ठहरा हुआ जल
काँप जाता है।

मछलियाँ बेचैन हो उठतीं
देखते ही हाथ की परछाइयाँ
एक कंकड़ फेंक कर देखो
काँप उठती हैं सभी गहराइयाँ
और उस पल झुका कन्धों पर क्षितिज के
हर लहर के साथ
बादल काँप जाता है।

जानते हैं हम
जब शुरू होता कभी
कँपकँपाहट से भरा यह गन्दुमी बिखराव
टूट जाता है अचानक बेतरह
एक झिल्ली की तरह पहना हुआ ठहराव
जिस तरह ख़ूंख़ार
आहट से सहमकर
सरसराहट भरा जंगल काँप जाता है।


(आभार- एक बात मैं और बताना चाहूँगा कि अपनी ब्लॉग पोस्ट्स में मैं जो कविताएं, ग़ज़लें, शेर आदि शेयर करता हूँ उनको मैं सामान्यतः ऑनलाइन उपलब्ध ‘कविता कोश’ अथवा ‘Rekhta’ से लेता हूँ|)

आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|
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