कोट!

आज एक बार फिर मैं अपने समय के अत्यंत श्रेष्ठ और सृजनशील कवि स्वर्गीय सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जी की एक कविता शेयर कर रहा हूँ, इस कविता में सर्वेश्वर जी ने एक कोट के माध्यम से अत्यंत प्रभावशाली अभिव्यक्ति की है|

लीजिए प्रस्तुत है स्वर्गीय सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जी की यह कविता –


खूँटी पर कोट की तरह
एक अरसे से मैं टँगा हूँ
कहाँ चला गया
मुझे पहन कर सार्थक करने वाला?
धूल पर धूल
इस कदर जमती जा रही है
कि अब मैं खुद
अपना रंग भूल गया हूँ.
लटकी हैं बाहें
और सिकुड़ी है छाती
उनसे जुड़ा एक ताप
एक सम्पूर्ण तन होने का अहसास
मेरी रगों में अब नहीं है.
खुली खिड़की से देखता रहता हूँ मैं
बाहर एक पेड़
रंग बदलता
चिड़ियों से झनझनाता
और हवा में झूमता:
मैं भी हिलता हूँ
बस हिलता हूँ
दीवार से रगड़ खाते रहने के लिए.
एक अरसा हुआ
हाँ, एक लम्बा अरसा
जब उसने चुपचाप दरवाजा बन्द किया
और बिना मेरी ओर देखे,कुछ बोले
बाहर भारी कदम रखता चला गया—
‘अब तुम मुक्त हो
अकेले कमरे में मुक्त
किसी की शोभा या रक्षा
बनने से मुक्त
सर्दी ,गर्मी ,बरसात, बर्फ़,
झेलने से मुक्त
दूसरों के लिए की जाने वाली
हर यात्रा से मुक्त
अपनी जेब और अपनी बटन के
अपने कालर और अपनी आस्तीन के
आप मालिक
अब तुम मुक्त हो ,आजाद—
पूरी तरह आजाद—अपने लिए.’

खूँटी पर एक अरसे से टँगा
कमरे की खामोशी का यह गीत
मैं हर लम्हा सुनता हूँ
और एक ऐसी कैद का अनुभव
करते—करते संज्ञाहीन होता जा रहा हूँ
जो सलीब् अपनी कीलों से लिखती है.
मुझे यह मुक्ति नहीं चाहिए.
अपने लिए आजाद हो जाने से बेहतर है
अपनों के लिए गुलाम बने रहना.
मुझे एक सीना चाहिए
दो सुडौल बाँहें
जिनसे अपने सीने और बाँहों को जोड़ कर
मैं सार्थक हो सकूँ
बाहर निकल सकूँ
अपनी और उसकी इच्छा को एक कर सकूँ
एक ही लड़ाई लड़ सकूँ
और पैबन्द और थिगलियों को अंगीकार करता
एक दिन जर्जर होकर
समाप्त हो सकूँ.
उसकी हर चोट मेरी हो
उसका हर घाव पहले मैं झेलूँ
उसका हर संघर्ष मेरा हो
मैं उसके लिए होऊँ
इतना ही मेरा होना हो.
खूँटी पर एक अरसे से टँगे—टँगे
मैं कोट से
अपना कफ़न बनता जा रहा हूँ.
कहाँ हैं काली आँधियाँ?
सब कुछ तहस—नहस कर देने वाले
भूकम्प कहाँ हैं?
मैँ इस दीवार, इस खूँटी से
मुक्त होना चाहता हूँ
और तेज आँधियों में उड़ता हुआ
अपनी बाँहें उठाये
सीना चौड़ा किये
उसे खोजना चाहता हूँ—
जो चुपचाप दरवाजा बन्द कर
बिना मेरी ओर देखे और कुछ बोले
बाहर भारी कदम रखता हुआ चला गया.
मैं जानता हूँ
उसे कोई बुला रहा था.
उसे कुछ चाहिए था.
उसे एक बड़ी आँधी और भूकम्प
लाने वाली ताकतों की खोज करनी थी
उसे यहाँ से जाना ही था.
लेकिन कहाँ?
मैं उसके साथ जाना चाहता था.
एक अरसे से खूँटी पर टँगे—टँगे
मैं भी
एक काली आँधी
एक बड़े भूकम्प की ज़रूरत
महसूस करने लगा हूँ.
क्या वह भी
मेरी तरह
किसी खूँटी पर टँगे—टँगे थक गया था?
कोट था?


(आभार- एक बात मैं और बताना चाहूँगा कि अपनी ब्लॉग पोस्ट्स में मैं जो कविताएं, ग़ज़लें, शेर आदि शेयर करता हूँ उनको मैं सामान्यतः ऑनलाइन उपलब्ध ‘कविता कोश’ अथवा ‘Rekhta’ से लेता हूँ|)

आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|
********

2 responses to “कोट!”

    1. shri.krishna.sharma avatar
      shri.krishna.sharma

      Thanks a lot ji.

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