आज एक बार मैं हिन्दी काव्य मंचों के एक प्रमुख कवि और सांसद भी रहे स्वर्गीय बालकवि बैरागी जी की एक कविता शेयर कर रहा हूँ| बैरागी जी की कविताओं में साफ़गोई और खुद्दारी की अभिव्यक्ति प्रमुखता से मिलती थी|
लीजिए आज प्रस्तुत है स्वर्गीय बालकवि बैरागी जी की यह कविता –

छीनकर छ्लछंद से
हक पराया मारकर
अमृत पिया तो क्या पिया ?
हो गये बेशक अमर
जी रहे अमृत उमर
लेकिन अभय अनमोल
सारा छिन गया ।
देवता तो हो गये पर
क्या हुआ देवत्व का ?
आयुभर चिन्ता करो अब
पद प्रतिष्टा,राजसत्ता
और अपने लोक की !
छिन नहीं जाए सुधा सिंहासनों की
एक ही भय
रात दिन आठों प्रहर
प्राण में बैठा रहे–
इस भयातुर अमर
जीवन का करो क्या ?
जो किसी षड्यंत्र मे
छलछंद में शामिल नहीं था
पी गया सारा हलाहल
हो गया कैसे अमर ?
पा गया साम्राज्य
’शिव’- संज्ञा सहित
शिवलोक का —
कर रहा कल्याण सारे विश्व का !
सुर – असुर सब पूजते
उसको निरंतर
साध्य सबका बन गया
कर्म मे कोई कलुष
जिसके नहीं है
शीश पर नीलाभ नभ
खुद छत्र बनकर तन गया !
जो कुटिलता से जियेंगे
वे सदा विचलित रहेंगे
त्राण-त्राता के लिये
मारे फिरेंगे !
हक पराया मारकर
छलछंद से छीना हुआ
अमृत अगर मिल भी गया तो
आप उसका पान करके
उम्र भर फिर क्या करेंगे ?
(आभार- एक बात मैं और बताना चाहूँगा कि अपनी ब्लॉग पोस्ट्स में मैं जो कविताएं, ग़ज़लें, शेर आदि शेयर करता हूँ उनको मैं सामान्यतः ऑनलाइन उपलब्ध ‘कविता कोश’ अथवा ‘Rekhta’ से लेता हूँ|)
आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|
********
Leave a Reply