बस्तियाँ!

हिन्दी के एक श्रेष्ठ रचनाकार श्री रामदरश मिश्र जी की एक ग़ज़ल आज प्रस्तुत कर रहा हूँ| श्री रामदरश मिश्र जी ने साहित्य की सभी विधाओं में अपना योगदान किया है | उनकी बहुत सी रचनाएं मैंने पहले भी शेयर की हैं|

लीजिए आज प्रस्तुत है श्री रामदरश मिश्र जी की यह ग़ज़ल–

इस हाल में जाने न कैसे रह रहीं ये बस्तियाँ,
सुनता नहीं ऊपर कोई, कुछ कह रहीं ये बस्तियाँ

रोटी नहीं, पानी नहीं, अपने नहीं, सपने नहीं
वादे सियासत के कभी से सह रहीं ये बस्तियाँ

गर एक चिंगारी उठी तो ये धधक कर जल उठीं,
यदि टूट कर पानी गिरा तो बह रहीं ये बस्तियाँ

कोई सहारा है नहीं, मासूम लावारिस हैं ये
हैं लड़खड़ा कर उठ रहीं फिर ढर रहीं ये बस्तियाँ

ख़ामोश-सी लगतीं मगर विस्फोट होगा एक दिन
ज्वालामुखी-सी खुद के अंदर दहक रहीं ये बस्तियाँ


(आभार- एक बात मैं और बताना चाहूँगा कि अपनी ब्लॉग पोस्ट्स में मैं जो कविताएं, ग़ज़लें, शेर आदि शेयर करता हूँ उनको मैं सामान्यतः ऑनलाइन उपलब्ध ‘कविता कोश’ अथवा ‘Rekhta’ से लेता हूँ|)

आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|

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