आज मैं हिन्दी नवगीत के प्रमुख हस्ताक्षर स्वर्गीय उमाकांत मालवीय जी की एक रचना शेयर कर रहा हूँ| उमाकांत मालवीय जी ने इस रचना में कवियों को उनके कवि धर्म का स्मरण कराया है| मालवीय जी की कुछ रचनाएं मैंने पहले भी शेयर की हैं|
लीजिए आज प्रस्तुत है स्वर्गीय उमाकांत मालवीय जी का यह नवगीत –

आ गए फिर चारणों के दिन,
लौट आए चारणों के दिन ।
सिर धुने चाहे गिरा पछताय
फूल क्या, सौगन्ध भी असहाय
तीर चुन तूणीर से गिन-गिन ।
‘मत्स्य भेदन’ तेल पर है दृष्टि
एक फिसलन की अनोखी सृष्टि
बीन पर लेती लहर नागिन ।
ध्वजाओं की कोर्निश दरबार
क्रान्तियाँ कर ज़ोर हाथ पसार
दीन बन टेरें, नहीं मुमकिन ।
क़सीदे औ’ चमकदार प्रशस्ति
सिर्फ़ एकोऽहं द्वितीयो नास्ति
नहीं सम्भव, सिंह तोड़े तृण ।
(आभार- एक बात मैं और बताना चाहूँगा कि अपनी ब्लॉग पोस्ट्स में मैं जो कविताएं, ग़ज़लें, शेर आदि शेयर करता हूँ उनको मैं सामान्यतः ऑनलाइन उपलब्ध ‘कविता कोश’ अथवा ‘Rekhta’ से लेता हूँ|)
आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|
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