आज शायद पहली बार मैं प्रस्तुत कर रहा हूँ हिन्दी के वरिष्ठ कवि स्वर्गीय जानकीवल्लभ शास्त्री जी की एक कविता| शास्त्री जी को अनेक साहित्यिक सम्मान प्राप्त हुए थे तथा पद्मश्री सम्मान भी सरकार की तरफ से प्रदान किया जा रहा था, जिसे उन्होंने स्वीकार नहीं किया था| उन्होंने संस्कृत में भी अनेक रचनाएं लिखी थीं|
लीजिए आज प्रस्तुत है स्वर्गीय जानकीवल्लभ शास्त्री जी की यह कविता –

सब अपनी-अपनी कहते हैं!
कोई न किसी की सुनता है,
नाहक कोई सिर धुनता है,
दिल बहलाने को चल फिर कर,
फिर सब अपने में रहते हैं!
सबके सिर पर है भार प्रचुर
सब का हारा बेचारा उर,
सब ऊपर ही ऊपर हँसते,
भीतर दुर्भर दुख सहते हैं!
ध्रुव लक्ष्य किसी को है न मिला,
सबके पथ में है शिला, शिला,
ले जाती जिधर बहा धारा,
सब उसी ओर चुप बहते हैं।
(आभार- एक बात मैं और बताना चाहूँगा कि अपनी ब्लॉग पोस्ट्स में मैं जो कविताएं, ग़ज़लें, शेर आदि शेयर करता हूँ उनको मैं सामान्यतः ऑनलाइन उपलब्ध ‘कविता कोश’ अथवा ‘Rekhta’ से लेता हूँ|)
आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|
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