हिन्दी साहित्य में कुछ मेरे हमनाम भी रहे हैं, जैसे पूरी तरह मेरे जैसे नाम के एक श्रीकृष्ण शर्मा भी रहे हैं, वाराणसी के एक प्रसिद्ध नवगीतकार श्रीकृष्ण तिवारी जी भी थे, जिनको मैंने एक बार अपने आयोजन में भी बुलाया था| स्वर्गीय श्रीकृष्ण तिवारी जी का एक प्रसिद्ध गीत है ‘धूप में जब भी जले हैं पाँव, घर की याद आई’ इस गीत पर प्रतिक्रिया स्वरूप स्वर्गीय रमेश रंजक जी ने लिखा था- ‘धूप में जब भी जले हैं पाँव, सीना तन गया है’|
खैर लीजिए आज प्रस्तुत है स्वर्गीय श्रीकृष्ण तिवारी जी का यह नवगीत –

क्या हुए वे रेत पर उभरे
नदी के पांव
जिन्हें लेकर लहर आई थी
हमारे गाँव
आइना वह कहाँ जिसमें
हम संवारे रूप
रोशनी के लिए झेलें
अब कहाँ तक धूप
क्या हुई वह
मोरपंखी बादलों की छाँव
फूल पर नाखून के क्यों
उभर आये दाग
बस्तियों में एक जंगल
बो गया क्यों आग
वक्त लेकर जिन्हें आया था
हमारे गाँव
(आभार- एक बात मैं और बताना चाहूँगा कि अपनी ब्लॉग पोस्ट्स में मैं जो कविताएं, ग़ज़लें, शेर आदि शेयर करता हूँ उनको मैं सामान्यतः ऑनलाइन उपलब्ध ‘कविता कोश’ अथवा ‘Rekhta’ से लेता हूँ|)
आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|
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