बन गई कविता मेरी!

एक बार फिर से मैं आज अपने समय के अत्यंत प्रसिद्ध कवि स्वर्गीय बलबीर सिंह ‘रंग’ जी का एक गीत प्रस्तुत कर रहा हूँ| रंग जी की काव्य प्रस्तुति की अपनी ही अलग शैली थी, उनकी कुछ रचनाएं मैंने पहले भी शेयर की हैं|

लीजिए आज प्रस्तुत है स्वर्गीय स्वर्गीय बलबीर सिंह ‘रंग’ जी का यह गीत  

युग के आहत उर की पीड़ा बन गई आज कविता मेरी ।
अपने मानव की परवशता
मैंने कवि बन कर पहचानी,
दुख-विष के प्याले पीकर ही तो
सुख मधु की मृदुता जानी,
संघर्षों के वातायन से-
मैंने जग का अंतर झाँका,
जग ने निज स्वार्थ कसौटी से
मेरी निश्छलता को आँका,
जग भ्राँति भरा, मैं क्राँति भरा जग से कैसी समता मेरी,
युग के आहत उर की पीड़ा बन गई आज कविता मेरी ।

संसृति से मुझे अतृप्ति मिली
मैंने अनगिन अरमान दिए,
रोदन का दान मिला मुझको
मैंने मादक मृदु-गान दिए,
व्यवहार-कुशल जग में कवि के
वरदान किसे कब याद रहे,
शशि को दी रजत-निशा मैंने
दिनकर को स्वर्ण-विहान दिए,
लघुता वसुधा में लीन हुई नभ ने ले ली गुरुता मेरी
युग के आहत उर की पीड़ा बन गई आज कविता मेरी ।

किस रवि की स्वर्णिम-किरणों ने
मम उर-सरसिज के पात छुए,
मेरी हृद-वीणा पर किसके
सोये स्वर जगते राग हुए,
किसने मेरे कोमल उर पर
रख पीड़ाओं का भार दिया,
मैंने किसके आराधन को
अनजाने में स्वीकार किया,
यह प्रश्न उठे, मैं मौन रहा, जग समझा कायरता मेरी,
युग के आहत उर की पीड़ा बन गई आज कविता मेरी ।

(आभार- एक बात मैं और बताना चाहूँगा कि अपनी ब्लॉग पोस्ट्स में मैं जो कविताएं, ग़ज़लें, शेर आदि शेयर करता हूँ उनको मैं सामान्यतः ऑनलाइन उपलब्ध ‘कविता कोश’ अथवा ‘Rekhta’ से लेता हूँ|)

आज के लिए इतना ही,

नमस्कार|                                         

                            ********  

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